महत्वकांक्षा का पहला रूप सामने यह आया कि विन्ध्याचल ने सूर्य से कहा कि तुम मेरी भी परिक्रमा किया करो, मैं कोई कम हूँ क्या ? सूर्य ने कहा - मैं तो नियम से बँधा हुआ हूँ, इसलिए तुम्हारे कहने से तुम्हारी परिक्रमा नहीं कर सकता । अब देखिए, महत्वकांक्षा में विकृति आ गयी ? सूर्य से प्रकाश लेना एक बात है और सूर्य हमारी परिक्रमा करे, यह दूसरी बात है । अपनी महत्वकांक्षा के लिए हम प्रकाश जीवन में लें और प्रकाश का सदुपयोग करके हम आगे बढें, तब तो हमारी महत्वकांक्षा हमको सही दिशा में ले जायेगी पर अगर हम यह समझने लगें कि प्रकाश हमारे चारों ओर ही चक्कर काटने लगे, इसका अभिप्राय तो यही है कि हम केवल अपने को ही चमकाना चाहते हैं । और उसकी विकृति इस रूप में आ गयी कि जब सूर्य ने अस्वीकार कर दिया तो विन्ध्याचल ने कहा कि अगर तुम मेरी परिक्रमा नहीं करोगे तो तुम्हारे प्रकाश से मैं संसार को वंचित करके अंधकार फैला दूँगा । मात्सर्य का सबसे बुरा रूप यही है ।
Saturday, 31 December 2016
Friday, 30 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
.....कल से आगे.....
इतिहास और भूगोल की एक दृष्टि यह है कि इतिहास में 'काल' को बड़ा महत्व दिया जाता है, और भूगोल में 'स्थान' को बड़ा महत्व प्राप्त है । पर हमारे आध्यात्मिक जगत में इतिहास और भूगोल का उपयोग मानव-जीवन के जो तात्विक अर्थ हैं उनको ग्रहण करने के लिए किया गया । वैसे हिमालय और विन्ध्याचल की भौतिक अवस्थिति से तो आप परिचित ही हैं । पर हिमालय और विन्ध्याचल का आध्यात्मिक अर्थ जो रामायण में किया गया है वह बड़ा सांकेतिक है और पुराणों से जुड़ा हुआ है । विन्ध्याचल की कथा जो पुराणों में आती है वह बड़े महत्व की है । विन्ध्याचल को जब यह पता चला कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है तो उसके मन में भी महत्वकांक्षा जागी । व्यक्ति के अन्तःकरण की जो महत्वकांक्षा है वही वस्तुतः विन्ध्याचल का रूप है । और यह महत्वकांक्षा दो रूपों में रामायण में वर्णित है । इस प्रसंग में प्रश्न यह है कि महत्वकांक्षा होनी चाहिए कि नहीं ? विन्ध्याचल की यात्रा करनी चाहिए कि नहीं ? तो भई ! यह कहना तो बड़ा सरल है कि व्यक्ति महत्वकांक्षा छोड़ दे । पर व्यवहार में उसे उतार पाना सरल नहीं है । वैसे महत्वाकांक्षा के दोनों प्रकार के परिणाम हमें दिखायी देते हैं अगर महत्वाकांक्षा गलत दिशा में मुड़ जाय तो व्यक्ति प्रतापभानु की तरह रावण बन जायेगा और यदि महत्वकांक्षा को सही दिशा मिल जाय तो व्यक्ति भक्त, संत और भगवान का अभिन्न अंश भी बन सकता है ।
इतिहास और भूगोल की एक दृष्टि यह है कि इतिहास में 'काल' को बड़ा महत्व दिया जाता है, और भूगोल में 'स्थान' को बड़ा महत्व प्राप्त है । पर हमारे आध्यात्मिक जगत में इतिहास और भूगोल का उपयोग मानव-जीवन के जो तात्विक अर्थ हैं उनको ग्रहण करने के लिए किया गया । वैसे हिमालय और विन्ध्याचल की भौतिक अवस्थिति से तो आप परिचित ही हैं । पर हिमालय और विन्ध्याचल का आध्यात्मिक अर्थ जो रामायण में किया गया है वह बड़ा सांकेतिक है और पुराणों से जुड़ा हुआ है । विन्ध्याचल की कथा जो पुराणों में आती है वह बड़े महत्व की है । विन्ध्याचल को जब यह पता चला कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है तो उसके मन में भी महत्वकांक्षा जागी । व्यक्ति के अन्तःकरण की जो महत्वकांक्षा है वही वस्तुतः विन्ध्याचल का रूप है । और यह महत्वकांक्षा दो रूपों में रामायण में वर्णित है । इस प्रसंग में प्रश्न यह है कि महत्वकांक्षा होनी चाहिए कि नहीं ? विन्ध्याचल की यात्रा करनी चाहिए कि नहीं ? तो भई ! यह कहना तो बड़ा सरल है कि व्यक्ति महत्वकांक्षा छोड़ दे । पर व्यवहार में उसे उतार पाना सरल नहीं है । वैसे महत्वाकांक्षा के दोनों प्रकार के परिणाम हमें दिखायी देते हैं अगर महत्वाकांक्षा गलत दिशा में मुड़ जाय तो व्यक्ति प्रतापभानु की तरह रावण बन जायेगा और यदि महत्वकांक्षा को सही दिशा मिल जाय तो व्यक्ति भक्त, संत और भगवान का अभिन्न अंश भी बन सकता है ।
Thursday, 29 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ......
भगवान श्रीराघवेन्द्र ने मार्ग के संबंध में जिज्ञासा कहाँ और किससे की वह बड़े महत्व की बात है । भगवान श्रीराम के समक्ष चित्रकूट यात्रा का प्रश्न है और चित्रकूट जो है वह विन्ध्याचल का एक अंग है और प्रतापभानु के जीवन की जो यात्रा थी वह भी विन्ध्याचल की ही यात्रा थी । इस प्रकार दोनों की यात्राएँ विन्ध्याचल की हैं । रामायण में वर्णन आता है कि सारे संसार पर अधिकार कर लेने के पश्चात प्रतापभानु के मन में एक दिन विन्ध्याचल की यात्रा का संकल्प जाग्रत हुआ । विन्ध्याचल पर्वत में तथा उसके आसपास सघन वन है । गोस्वामीजी कहते हैं - प्रतापभानु जो था वह विन्ध्याचल के गम्भीर वन में गया और यहाँ पर भगवान श्रीराम की यात्रा भी विन्ध्याचल की ओर ही है तथा चित्रकूट भी वन ही है पर इसके सांकेतिक अर्थ क्या है ? आने वाले दिनों में हम इस पर विचार करेंगे ।
......आगे कल.....
......आगे कल.....
Wednesday, 28 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
जो व्यक्ति रावण बन गया वह कौन था ? इस पर यदि आप विचार करें तो आपको लगेगा कि जो व्यक्ति जीवन पथ से भटक गया वही रावण बन गया और वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं था । क्योंकि प्रतापभानु अपने सद्गुणों की दृष्टि से, अपने चरित्र की दृष्टि से महान था । वह भी चला, पर चलने के बाद भटक गया । कैसे भटक गया, इसका वर्णन करते हुए गोस्वामीजी कहते हैं - कैकेय देश में सत्यकेतु नाम के राजा थे । उन सत्यकेतु राजा के दो पुत्र हुए, प्रतापभानु और अरिमर्दन । सत्यकेतु ने वृध्दावस्था में राज्य का परित्याग कर दिया और श्रेष्ठ पुत्र प्रतापभानु को गद्दी पर बैठा दिया । प्रतापभानु सिंहासन पर बैठा और धर्मपूर्वक राज्य का संचालन करने लगा - उसके राज्य में ऐसा लगने लगा कि जैसे धर्मराज्य की स्थापना हो गई हो । प्रतापभानु इतना धार्मिक राजा, इतना महान चरित्र वाला व्यक्ति था । परन्तु जब यह कहा जाता है कि आगे चलकर वही रावण हो गया तो बड़ी निराशा होती है । किन्तु उस प्रसंग को ध्यान से पढ़ें तो एक बड़ा अनोखा संकेत सूत्र यह दिया गया है कि संसार में आज जो पक्षी दिखायी देते हैं उसमें कौए और हंस अलग-अलग दिखाई देते हैं । उनमें परिवर्तन करने का कोई उपाय नहीं है । कौआ, कौआ ही रहेगा और हंस, हंस ही । लेकिन मनुष्य के जीवन की विलक्षणता है कि उसमें परिवर्तन होता है । प्रतापभानु के जीवन में जब परिवर्तन हुआ तो उसको देखकर सब लोगों ने ब्रह्मा को दोष देते हुए यही कहा कि ब्रह्मा ने हंस का निर्माण करते-करते अचानक कौए का निर्माण कर दिया है । परन्तु ऐसा क्यों हो गया ? तो उसका जो चित्र गोस्वामीजी ने प्रस्तुत किया है, उसका भी सूत्र यही है कि प्रतापभानु मार्ग से भटक गया था ।
Tuesday, 27 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
गोस्वामीजी कहते हैं कि भगवान राम की जो चित्रकूट यात्रा है उसमें जिस क्रम से भगवान श्रीराम जिज्ञासा प्रकट करते हैं, तथा उसके बाद जिस क्रम से यात्रा करते हैं, हम और आप भी अगर उसी क्रम से जिज्ञासा करते हुए उस पथ पर चलें, जिस पर वे तीनों यात्री चले थे तो गोस्वामीजी विश्वास दिलाते हैं कि आप भगवान श्रीराम के धाम का मार्ग अवश्य प्राप्त कर लेंगे । श्रीराम कौन हैं ? वसिष्ठ जी ने उनके नाम का अर्थ बताते हुए कहते हैं - जो आनंद का समुद्र है, जो सुख की मूर्तिमान निधी है, जो समस्त प्राणियों को विश्राम देने वाला है, वही राम है । इसका अभिप्राय है कि एक यात्रा पथ वह है जिससे चलकर व्यक्ति श्रीराम से मिलकर रामत्व को पा लेता है । रामधाम का अर्थ राम में एकत्व पा लेना है । और दूसरी ओर एक यात्रा वह भी है जिस यात्रा के प्रारंभ में यात्री मनुष्य रूप होते हुए भी उस पथ पर चलते हुए राक्षस बन जायेगा, रावण बन जायेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है । इन दोनों मार्गों की तुलना करके गोस्वामीजी मानो संकेत देना चाहते हैं कि हम चाहें तो या तो प्रथम मार्ग को स्वीकार करके रामत्व की दिशा में बढ़ें या मनुष्य से रावणत्व की दिशा में बढ़ें, राक्षसत्व की दिशा में बढें । अब यह तो हमें और आपको निर्णय करना है कि हम कौन सा मार्ग अपने लिए चुनते हैं ।
Monday, 26 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
विगत कुछ दिनों से जो प्रसंग आपके सामने चल रहा है, यह भगवान श्रीराम की यात्रा का है, परन्तु रामचरितमानस में एक यात्रा और आती है जिसका वर्णन बालकाण्ड में किया गया है । रावण की कथा जब हम पढ़ते हैं तो उसके पाप का, अत्याचार का, राक्षसत्व का वर्णन पढ़ने को मिलता है तो विचित्र सा लगता है, क्योंकि आपने उसके मूल चरित्र पर अगर ध्यान दिया होगा तो आप यह देखेंगे कि रावण प्रतापभानु के रूप में मूलतः मनुष्य था और यही मनुष्य राक्षस हो गया । मनुष्य का राक्षस हो जाना केवल त्रेतायुग का ही सत्य नहीं है बल्कि आज भी इस संसार में जो राक्षस आते हैं वे मनुष्य से ही राक्षस बनकर आते हैं । और मनुष्य राक्षस तब बन जाता है जब वह अपने पथ से भटक जाता है ।
Sunday, 25 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
जब नारद को अत्यंत क्रोध आया और उन्होंने निर्णय किया कि मैं भगवान के पास बैकुंठ चलूँगा, तब भगवान नारद को बीच रास्ते में रोक देते हैं, कि नारद ! सही लक्ष्य तक पहुँचने की इच्छा ही यथेष्ट नहीं है, इसके साथ-साथ व्यक्ति के जीवन में सही मार्ग की भी आवश्यकता है । मुझे लगता है कि तुम्हारा लक्ष्य बुरा नहीं है, पर तुम मार्ग से भटक गये हो । इसके पश्चात भगवान देवर्षि नारद से वार्तालाप करके उनको वहीं से लौटा देते हैं । इसका अभिप्राय है कि जीवन में किसी भी व्यक्ति का लक्ष्य बुरा नहीं है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सुख पाना चाहता है, शान्ति पाना चाहता है, परमानन्द पाना चाहता है । इसमें तो कोई भेद नहीं है पर उन्हें प्राप्त करने के लिए जिन साधनों का हम प्रयोग करते हैं उनसे अगर सुख के स्थान पर दुख का अनुभव हो रहा है तो इसका अर्थ हमें यही लेना चाहिए कि शायद हम सही मार्ग पर नहीं हैं और इस बात का हमें अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि इतना विलम्ब लगने पर भी अगर हम लक्ष्य तक नहीं पहुँच पा रहे हैं तो हमारा कर्तव्य है कि किसी मार्ग के विशेषज्ञ महापुरुष के चरणों का आश्रय लेकर हम उनसे पूछें कि मेरे लिए उपयुक्त मार्ग कौन-सा है ? यह कृपा करके बताइए ।
Saturday, 24 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
...कल से आगे......
रामायण में बताया गया है कि यद्यपि संसार में अनेक श्रेष्ठ मार्ग हैं पर चार प्रकार के मार्ग और भी हैं, और वे चार मार्ग हैं - काम, क्रोध, मद और लोभ के । लेकिन इन विकारों की सड़कें कहाँ ले जाती हैं ? तो इसका उत्तर देते हुए बताया गया कि अगर कोई नर्क तक पहुँचना चाहता हो तो उसे काम, क्रोध, मद और लोभ की सड़क से यात्रा करनी चाहिए । नारद जी इस समय क्रोध से भरे हुए हैं इसका अर्थ हुआ कि वे क्रोध के मार्ग पर चल रहे हैं । भगवान ने व्यंग्य भरे स्वर में पूछा - महाराज ! आप इस नरक वाली सड़क पर कैसे चले जा रहे हैं ? यह तो बैकुंठ वाली सड़क नहीं है । क्रोध लेकर कोई बैकुंठ में थोड़े ही जाता है ? अन्तःकरण के दोष जब मिट जाते हैं तब व्यक्ति बैकुंठ में प्रवेश पाता है । तो दोषों को छोड़कर जिस लोक में पहुँचा जाता है वहाँ पर आप इन मार्गों से नहीं जा सकते । अभी आप विश्वमोहिनी को पाने की चेष्टा की तो आप काम के मार्ग पर चल रहे थे और इस समय जब आप क्रोध से तमतमा रहे हैं, आपकी भौंहें फड़क रही हैं, तो आप क्रोध के मार्ग से चल रहे हैं । इसी से मैं समझ गया कि आप स्वस्थ नहीं हैं, क्योंकि अगर स्वस्थ होते तो आप कदापि इस मार्ग से बैकुंठ जाने का प्रयास नहीं करते ।
रामायण में बताया गया है कि यद्यपि संसार में अनेक श्रेष्ठ मार्ग हैं पर चार प्रकार के मार्ग और भी हैं, और वे चार मार्ग हैं - काम, क्रोध, मद और लोभ के । लेकिन इन विकारों की सड़कें कहाँ ले जाती हैं ? तो इसका उत्तर देते हुए बताया गया कि अगर कोई नर्क तक पहुँचना चाहता हो तो उसे काम, क्रोध, मद और लोभ की सड़क से यात्रा करनी चाहिए । नारद जी इस समय क्रोध से भरे हुए हैं इसका अर्थ हुआ कि वे क्रोध के मार्ग पर चल रहे हैं । भगवान ने व्यंग्य भरे स्वर में पूछा - महाराज ! आप इस नरक वाली सड़क पर कैसे चले जा रहे हैं ? यह तो बैकुंठ वाली सड़क नहीं है । क्रोध लेकर कोई बैकुंठ में थोड़े ही जाता है ? अन्तःकरण के दोष जब मिट जाते हैं तब व्यक्ति बैकुंठ में प्रवेश पाता है । तो दोषों को छोड़कर जिस लोक में पहुँचा जाता है वहाँ पर आप इन मार्गों से नहीं जा सकते । अभी आप विश्वमोहिनी को पाने की चेष्टा की तो आप काम के मार्ग पर चल रहे थे और इस समय जब आप क्रोध से तमतमा रहे हैं, आपकी भौंहें फड़क रही हैं, तो आप क्रोध के मार्ग से चल रहे हैं । इसी से मैं समझ गया कि आप स्वस्थ नहीं हैं, क्योंकि अगर स्वस्थ होते तो आप कदापि इस मार्ग से बैकुंठ जाने का प्रयास नहीं करते ।
Friday, 23 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ......
देवर्षि नारद के प्रसंग में सबसे पहले संग से कामना उत्पन्न हुई, उसके पश्चात अत्यंत क्रोध आया और तब उन्होंने निर्णय किया कि मैं भगवान के पास चलूँगा - इतना सोचकर वे भगवान के पास तीव्र गति से चले । वैसे, पहली बार जब नारद गये थे तो बैकुंठ लोक में ही भगवान मिले थे और अब भी भगवान उनको बैकुंठ में ही मिल सकते थे, पर वहाँ पर लिखा हुआ है कि - नारद जी को बीच मार्ग में ही भगवान खड़े हुए मिल गये । यहाँ बीच में मिलने की क्या आवश्यकता थी ? नारद उतावले हो रहे थे, यह तो समझ में आता है, पर भगवान को ऐसी क्या शीघ्रता थी ? और इतना ही नहीं भगवान का प्रश्न तो और भी विचित्र था । भगवान ने नारद को प्रणाम करके जब उनसे प्रश्न किया तो नारद के क्रोध की सीमा नहीं रही । भगवान ने नारद जी से कहा - महाराज ! आप कहाँ जा रहे हैं ? और एक शब्द उसके साथ जुड़ा हुआ था कि आप जा तो रहे हैं, यह तो मैं देख रहा हूँ, पर आपको देखकर ऐसा लग रहा है कि आप कुछ अस्वस्थ हैं, व्याकुल हैं । अब तो नारद का क्रोध चौगुना बढ़ गया कि मुझे बंदर की आकृति इन्होंने दी, मेरा विवाह इन्होंने होने नहीं दिया, और यह भी जानते हैं कि मैं इन्हीं के पास चलकर जा रहा हूँ पर इतने भोले बनकर पूछ रहे हैं, कहाँ जा रहे हैं कि जैसे इन्हें कुछ पता ही न हो । परन्तु भगवान का बीच मार्ग मिलकर प्रश्न करने का अभिप्राय यह था कि जैसे आपको पता हो कि आपका कोई प्रिय व्यक्ति मार्ग भूल गया हो और वह भटककर गलत दिशा में जा रहा हो तो आप उसे बीच मार्ग में ही मिलें, क्योंकि ऐसा न होने पर वह बड़ी लम्बी यात्रा करके भटक कर न जाने कहाँ चला जायेगा ? तो उचित यही होगा कि आप ही उस तक पहुँच जायँ । इसलिए भगवान स्वयं ही नारद के पास पहुँच गये और उनसे प्रश्न पूछने में व्यंग्य यह था कि नारद ! तुम बैकुंठ लोक में जाना चाहते हो, मुझ तक पहुँचना चाहते हो यह तो मैं जानता हूँ, पर जिस सड़क से तुम जा रहे हो क्या सचमुच यह सड़क बैकुंठ लोक तक जाती है ?
.....आगे कल ....
.....आगे कल ....
Thursday, 22 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
शीलनिधि राजा ने जब अपनी कन्या विश्वमोहिनी का हाथ देखने के लिए नारद जी से कहा और विश्वमोहिनी का हाथ उन्होंने देखा तो उनके अन्तःकरण में वासना और कामना का जन्म हो गया । बाद में एक बार देवर्षि नारद ने भगवान पर मीठा उलाहना देते हुए कहा - प्रभु ! संसार में इतने व्यक्ति विवाह करते हैं, आप किसी के विवाह में बाधा नहीं देते हैं, परन्तु मेरे विवाह में बाधा देना आपको आवश्यक क्यों लगा ? प्रभु ने कहा - नारद ! विवाह का अर्थ है पाणिग्रहण संस्कार । जिसमें वर कन्या का हाथ पकड़ता है । भगवान ने व्यंग्य भरे स्वर में कहा कि जब तुमने हस्तरेखा देखने के लिए केवल कुछ क्षणों के लिए ही पाणिग्रहण किया तब तो तुम्हारी ऐसी शोचनीय स्थिति हो गयी, पर अगर तुम जीवन भर के लिए पाणिग्रहण करते तो न जाने क्या होता ? इसलिए मुझे लगा कि तुम्हें इस संस्कार से बचाया जाय ।
Wednesday, 21 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
जीवन पथ में सही मार्ग के निर्धारण के संदर्भ में देवर्षि नारद के प्रसंग में एक बड़ी व्यंग्यात्मक बात आती है । देवर्षि नारद विश्वमोहिनी को पाने के लिए जब व्यग्र हो जाते हैं तब उनमें कामना का उदय होता है । हम यों कह सकते हैं कि उस प्रसंग का उद्देश्य श्रेष्ठ व्यक्ति के जीवन में भी भटकाव आने की सम्भावना की ओर संकेत करना है । विश्वमोहिनी का सौन्दर्य देखकर नारद उसे पाने के लिए व्यग्र हो जाते हैं । पर जब वे उसे पाने की चेष्टा में सफल नहीं होते, तब उनके अन्तःकरण में अत्यंत क्रोध उत्पन्न होता है । यद्यपि देवर्षि नारद के जीवन की तो यह क्षणिक गाथा है, पर हमारे और आपके जीवन का यह निरन्तर घटित होने वाला सत्य है । मानसिक मनोभाव एक के बाद दूसरे कैसे आते हैं इसको ओर संकेत करते हुए गीता में भगवान कृष्ण ने कहा कि संग से जब कामना उत्पन्न होती है तो उसके दो परिणाम होते हैं यदि कामना की पूर्ति हो जाय तो व्यक्ति के जीवन में लोभ बढ़ेगा और यदि कामना की पूर्ति में बाधा पड़े तो व्यक्ति को क्रोध आयेगा । वैसे गीता में उसे लोभ का नाम नहीं दिया गया, केवल यही कहा गया कि संग से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है । लोभ को छोड़ देने का महत्वपूर्ण तात्पर्य यह है कि कामना के बाद मनुष्य को क्रोध आये बिना रहेगा ही नहीं । क्योंकि कामना के बाद मनुष्य का लोभ बढ़ेगा और कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता जिसके जीवन में सम्पूर्ण लोभ की पूर्ति हो जाय । इसलिए भगवान कृष्ण ने यह कहना ज्यादा उचित माना कि संग से कामना और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है । देवर्षि नारद के प्रसंग में हमें इसी क्रम का परिचय मिलता है ।
Tuesday, 20 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ......
तीर्थराज प्रयाग में महर्षि भरद्वाज से बड़े ही प्रेम भरे शब्दों में प्रभु ने पूछा कि कृपा करके बताइए कि मैं किस मार्ग से जाऊँ ? भगवान श्रीराघवेन्द्र का यह प्रश्न केवल भौतिक प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि भौतिक दृष्टि से प्रभु को मार्ग दिखाने के लिए निषादराज तो साथ में हैं ही, और वैसे भी यमुना के बाद तो प्रभु स्वयं ही यात्रा करते हैं । किन्तु भई ! जो प्रश्न सुनने में बड़ा भौतिक सा प्रतीत होता है, उस छोटे प्रश्न में भगवान राम ने समाज के उस शाश्वत प्रश्न को दोहराया है जो जीवन पथ में प्रत्येक व्यक्ति के सामने आता है । यद्यपि छोटी-मोटी शरीरगत यात्राएँ तो हमारे और आपके जीवन में न जाने कितनी होती हैं, पर अगणित जन्मों में जीव की एक यात्रा चल रही है । किन्तु विडम्बना यह है कि जहाँ सांसारिक यात्रा में व्यक्ति क्रमशः लक्ष्य के समीप पहुँच जाता है, वहाँ आन्तरिक जीवन में वह लक्ष्य से दूर होता जा रहा है । आनन्द की जैसी अनुभूति व्यक्ति को जीवन के प्रारम्भिक क्षणों में होती रहती थी, आगे बढ़ता हुआ वह इससे वंचित हो जाता है । इसका क्या कारण है ? यदि यह प्रश्न किसी से किया जाय तो इसका सांकेतिक उत्तर यही है कि यदि समय अधिक लग रहा हो, किन्तु उसके बाद भी अगर हम अपने घर के पास नहीं पहुँच रहे हैं तो इसका सरल सा अर्थ यही है कि सही मार्ग से भटक गये होंगे । क्योंकि सही मार्ग पर चलने का एक स्पष्ट प्रमाण यह है कि समय बीतने के साथ-साथ हम अपने गन्तव्य के निकट तक पहुँचेंगे । किन्तु यात्रा में केवल चलने मात्र से काम नहीं चलेगा अपितु सही मार्ग का निर्धारण भी आवश्यक है । क्योंकि सही मार्ग पर अगर न चला तो स्वाभाविक रूप से व्यक्ति भटककर अपने लक्ष्य से दूर होता जायेगा ।
Monday, 19 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
आप यदि विचार करके देखें तो आपको लगेगा कि महर्षि भरद्वाज से मार्ग के विषय में प्रश्न कर श्री राघवेन्द्र ने वही कृपा की जो प्रार्थना तुलसीदास जी कर रहे थे । जीव भटका हुआ था, ईश्वर के पास पहुँच नहीं रहा था, किन्तु भगवान स्वयं मनुष्य बनकर अवतरित हो गये । तथा वे स्वयं यात्री बन गये । और यात्री बनकर जीवन के जो विविध प्रश्न थे, उन सबका समाधान दिया । तो यह जो भरद्वाज जी से भगवान का वार्तालाप है, वह भी हमारे जीवन का प्रश्न है । और भई ! यह प्रश्न तो बड़ा पुराना है । महाभारत में भी यही प्रश्न आपको मिलेगा, जो भगवान राम का है । यहाँ पर भगवान राम ने महर्षि भरद्वाज से यह नहीं बताया कि कहाँ जाना है । ज्ञान की दृष्टि से इसलिए नहीं बताया कि वे स्वयं ईश्वर हैं । पर अगर साधना की दृष्टि से देखें तो इसका अभिप्राय है कि भगवान श्रीराघवेन्द्र ने कहा - महाराज ! मैं इसलिए नहीं बता रहा हूँ कि मुझे अपने लक्ष्य का ही पता नहीं है कि कहाँ जाना है, क्योंकि मैं तो अल्पज्ञ जीव हूँ । तो आप ही लक्ष्य बताइए और आप ही मार्ग बताइए । इसका अभिप्राय है कि जीवन-पथ में जब कभी यह दुविधा उत्पन्न हो कि सही मार्ग कौन-सा है, जीवन में कैसे चलें कि जिससे अपने लक्ष्य तक पहुँच जायँ ? तो हमें रामचरितमानस एवं महाभारत के इन दृष्टांतों के द्वारा उस दुविधा का निराकरण करना चाहिए ।
Sunday, 18 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .....
विनय-पत्रिका के इस पद 'राम कहत चलु....' में अंत में गोस्वामीजी प्रभु से कहते हैं - महाराज ! यात्री भटक रहा हो और उसे याद न हो कि कहाँ जाना है, लेकिन जिसके यहाँ जाना हो कहीं वही आ जाय और आकर कहे कि अच्छा अब मेरे साथ चले चलो, इससे बढ़कर यात्री के लिए सुख कुछ नहीं होगा । प्रभु ! इसी प्रकार जीव भटका हुआ है, यद्यपि लक्ष्य तो आप ही हैं, पर वह आपको भूल गया है । अब तो कृपा करके आप ही आकर उसको ले चलिए, और ले जाकर उसको उसके गाँव तक पहुँचा दीजिए । आप ही मार्गदर्शक बनिए और आप ही मार्ग बनिए तथा आप ही लेकर उसको लक्ष्य तक पहुँचा दीजिए ।
Saturday, 17 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ......
.....कल से आगे.....
गोस्वामीजी ने कहा कि एक तो ऐसी डोली मिल गयी, और ऊपर से कहार विषम संख्या में मिल गये, और फिर जब वे अपनी-अपनी ओर खींचते हैं तो क्या होता है ? बोले - यात्री को चारों ओर से हिलाया जा रहा है और बेचारा यात्री उसमें परेशान हो रहा है । किसी ने गोस्वामीजी से कहा - कहार जब आपके हैं तो उन्हें डाँटना चाहिए, सेवक को वश में रहना चाहिए । उन्होंने कहा - बस ! कठिनाई तो यही है, क्योंकि जितना वेतन वे कहार चाहते हैं उतना वेतन यदि उन्हें दिया जायेगा तब तो वे वश में रहेंगे, अन्यथा वे उच्छृंखल हो सकते हैं । किन्तु जितना वेतन वे चाहते हैं, उतना तो हम दे नहीं पाते । इन्द्रियाँ जितना भोग चाहती हैं, उतना हम नहीं दे पाते । इसलिए ये हमारी बात नहीं मानती । तो किसी ने गोस्वामीजी से कहा कि महाराज ! आप इनसे वायदा कर दीजिए कि अभी तो हम पूरा वेतन नहीं दे पा रहे हैं, परन्तु जब हमारे गाँव पहुँचा दोगे तो तुम्हारा पूरा वेतन चुका देंगे । जो तुम्हारी इच्छा है वह पूरी कर देंगे । और तब तुलसीदास जी ने जो अन्तिम वाक्य कहा वह सबसे बड़ा व्यंग्य था । गोस्वामीजी ने कहा - भैया ! यही तो सबसे बड़ी समस्या है । क्योंकि एक डोली सड़ी हुई, कहार जो हैं वे विषम हैं । और चारों ओर खींच रहे हैं । मार्ग में मार्ग व्यय चुकाने के लिए द्रव्य नहीं है । पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमें यही याद नहीं है कि हमको जाना कहाँ है ? कहार यदि कहीं पूछ ही दें कि आपको कहाँ ले चलना है, यह तो बताइए ? तो उसका हमें पता ही नहीं है । इसका अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति से यदि पूछा जाय कि आपके जीवन का लक्ष्य क्या है तो वह भौंचक्का होकर देखेगा - अरे ! सचमुच जीवन का लक्ष्य क्या है इसका तो पता ही नहीं है । गोस्वामीजी ने कहा कि परिणाम यह होता है कि जब यात्री ऐसी यात्रा करें तो ज्यों-ज्यों वह चलेगा, त्यों-त्यों जन्म व्यतीत होंगे त्यों-त्यों व्यक्ति लक्ष्य से दूर होता जायेगा ।
गोस्वामीजी ने कहा कि एक तो ऐसी डोली मिल गयी, और ऊपर से कहार विषम संख्या में मिल गये, और फिर जब वे अपनी-अपनी ओर खींचते हैं तो क्या होता है ? बोले - यात्री को चारों ओर से हिलाया जा रहा है और बेचारा यात्री उसमें परेशान हो रहा है । किसी ने गोस्वामीजी से कहा - कहार जब आपके हैं तो उन्हें डाँटना चाहिए, सेवक को वश में रहना चाहिए । उन्होंने कहा - बस ! कठिनाई तो यही है, क्योंकि जितना वेतन वे कहार चाहते हैं उतना वेतन यदि उन्हें दिया जायेगा तब तो वे वश में रहेंगे, अन्यथा वे उच्छृंखल हो सकते हैं । किन्तु जितना वेतन वे चाहते हैं, उतना तो हम दे नहीं पाते । इन्द्रियाँ जितना भोग चाहती हैं, उतना हम नहीं दे पाते । इसलिए ये हमारी बात नहीं मानती । तो किसी ने गोस्वामीजी से कहा कि महाराज ! आप इनसे वायदा कर दीजिए कि अभी तो हम पूरा वेतन नहीं दे पा रहे हैं, परन्तु जब हमारे गाँव पहुँचा दोगे तो तुम्हारा पूरा वेतन चुका देंगे । जो तुम्हारी इच्छा है वह पूरी कर देंगे । और तब तुलसीदास जी ने जो अन्तिम वाक्य कहा वह सबसे बड़ा व्यंग्य था । गोस्वामीजी ने कहा - भैया ! यही तो सबसे बड़ी समस्या है । क्योंकि एक डोली सड़ी हुई, कहार जो हैं वे विषम हैं । और चारों ओर खींच रहे हैं । मार्ग में मार्ग व्यय चुकाने के लिए द्रव्य नहीं है । पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमें यही याद नहीं है कि हमको जाना कहाँ है ? कहार यदि कहीं पूछ ही दें कि आपको कहाँ ले चलना है, यह तो बताइए ? तो उसका हमें पता ही नहीं है । इसका अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति से यदि पूछा जाय कि आपके जीवन का लक्ष्य क्या है तो वह भौंचक्का होकर देखेगा - अरे ! सचमुच जीवन का लक्ष्य क्या है इसका तो पता ही नहीं है । गोस्वामीजी ने कहा कि परिणाम यह होता है कि जब यात्री ऐसी यात्रा करें तो ज्यों-ज्यों वह चलेगा, त्यों-त्यों जन्म व्यतीत होंगे त्यों-त्यों व्यक्ति लक्ष्य से दूर होता जायेगा ।
Friday, 16 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
विनय-पत्रिका के इस पद - राम कहत चलु ....- में गोस्वामीजी ने आगे कहा कि कुटिल करमचंद जी ने ऐसा दान (शरीर) दे दिया कि न तो इसको बदल सकते हैं, न ही छोड़ सकते हैं । बल्कि जीवन भर उसी की सेवा में लगे रहते हैं । किसी ने कहा कोई बात नहीं, अगर डोली बुरी भी है तो क्या बात है, अभी तो काम चलाइए । गोस्वामीजी ने कहा कि अभी तो इसका पूरा वर्णन और सुन लीजिए । क्योंकि जो डोली होती है उसमें ढोने वाले लगाये जाते हैं दो या चार । एक आगे, एक पीछे या दो आगे और दो पीछे । किन्तु यह जो डोली करमचंद जी ने दी है, इसमें कहार भी लगे हुए हैं, तो ग्यारह । अब किस तरफ किसको लगायें, इसका बँटवारा कैसे करें ? अगर दस भी होते, तो पाँच-पाँच दोंनो ओर लगा देते, पर जहाँ ग्यारह हों उनको कहाँ-कहाँ खड़ा करें ? ग्यारह कहार का अर्थ है पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और एक मन । इन्हीं ग्यारह कहारों के द्वारा हमारा शरीर चल रहा है । गोस्वामीजी कहते हैं कि इस यात्रा में जीव को महान कष्ट होता है क्योंकि संसार में कहार जब चलेंगे तब एक ही दिशा में यात्री को लेकर चलेंगे । लेकिन यहाँ, जितने भी कहार हैं वे सब अपनी-अपनी ओर खींच रहे हैं । आँख अपनी ओर, कान अपनी ओर, चिह्वा अपनी ओर, नाक अपनी ओर तथा त्वचा अपनी ओर । इस प्रकार सारे कहार अपनी-अपनी ओर खींच रहे हैं । और यह मन वाला कहार तो इतना विकट है कि यह कब किधर उछलकर लग जायेगा इसका कोई पता नहीं । यह सर्वदा स्थान ही बदलता रहता है । कभी आँख के साथ, कभी कान के साथ, कभी जिह्वा के साथ, जब देखिए तब उछल रहा है ।
.......आगे कल .....
.......आगे कल .....
Thursday, 15 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ......
विनय-पत्रिका में गोस्वामीजी कर्म के साथ बहुधा एक शब्द जोड़ दिया करते हैं और वह शब्द है - कुटिल । जीवन-यात्रा के इस पद में कुटिल के साथ करम में चंद और जोड़कर कुटिल करमचंद नाम बना दिया उन्होंने । यह नहीं कहा कि कर्म से डोली मिली है बल्कि यह कहा कि कुटिल करमचंद ने इसे दिया है । यह दानी का नाम है । तो महाराज ! आप दानी को कुटिल क्यों कह रहे हैं ? उन्होंने कहा - भई ! दानी ऐसी वस्तु दे कि जिसे पाकर पाने वाले को सुख मिले, तब तो वह बड़ा उदार दानी है । पर यदि ऐसी वस्तु दे जिसे पाने वाला जीवन भर उसे ढोते-ढोते मर जाय, दुख ही दुख पाता रहे, तब तो सचमुच वह बड़ा कुटिल दानी है । करमचंदजी ने शरीर तो दे दिया पर शरीर हम लोगों को ढो रहा है, या हम शरीर को ढो रहे हैं । दिन-रात जो चेष्टा चल रही है, वह शरीर की सेवा है, या शरीर द्वारा आत्मा की सेवा हो रही है, तो भई ! शरीर की सेवा पाकर जीव को यदि सुख मिले तब तो इसे पाने का आनन्द है, पर हमें दिखायी यह देता है कि जीव शरीर की सेवा में लगा हुआ है ।
Wednesday, 14 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
गोस्वामीजी ने कल्पना की कि यात्री को यह चिंता रहती है कि अगर हम पैदल चलेंगे तो कष्ट होगा । अतः व्यक्ति यह चाहता है कि ढोने वाला यदि कोई दूसरा मिल जाय और दूसरे के कन्धे पर बैठकर अगर हम चल सकें तो इससे बढ़िया बात क्या होगी ? प्राचीन काल में जब अन्य सवारियाँ नहीं थीं तब गाँव में एक छोटी सी खाट को बाँस के आधार पर लटकाकर उसमें आदमी को बैठाकर ढोया जाता था । गोस्वामीजी ने बताया कि जीव तो यात्री है, और उसका शरीर डोली है । यह जीव (आत्मतत्व) शरीर की डोली में बैठकर यात्रा कर रहा है । किसी ने कहा, यह तो बड़े आनन्द की बात हो गयी कि जीव को डोली में बैठकर यात्रा करनी है । तो गोस्वामीजी ने कहा - यह डोली कैसी है, उठाने वाले कहार कैसे हैं, पहले इसका पूरा परिचय तो आप पढ़ लीजिए । डोली कैसी है ? तो आपने देखा होगा कि जो डोली बनायी जाती है, उसमें बाँस ऐसा लगाया जाता है कि जो सड़ा हुआ न हो, अन्यथा बेचारा यात्री बाँस के टूट जाने से गिर जायेगा । पर यहाँ पर जीव ने जो डोली बनायी है उसका बाँस कैसा है ? गोस्वामीजी ने कहा - बाँस पुराना और सड़ा हुआ है और खटोला जो है वह तिकोना है । चौकोर हो तो आराम मिले, पर जब तिकोना होगा तो व्यक्ति पैर भी ठीक से फैला नहीं सकेगा । इसका अभिप्राय है कि सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण का यह तिकोना खटोला है । और शरीर ऐसा मिला हुआ है, जैसे सड़ा हुआ बाँस, कब कहाँ से टूट जाय, इसका कोई ठिकाना नहीं; इसी प्रकार से शरीर का कौन-सा अंग कब रोगी हो जाये इसे कौन कह सकता है ? किसी ने गोस्वामीजी से कहा - महाराज ! अगर डोली पर ही चलना है तो बढ़िया डोली पर क्यों नहीं चल रहे हैं ? तुलसीदासजी ने कहा भई ! डोली अगर अपने द्वारा बनवायी गयी हो तब तो हम अपने मन की बनवायेंगे, पर किसी ने दान में दी हो तो फिर अपने मन के अनुरुप बनवाने का प्रश्न ही नहीं है । तो जीव को यह जो डोली मिली हुई है, वह बेचारे की स्वयं की इच्छा से नहीं बनी है बल्कि यह तो दान की है । तो किसने दिया है दान ? बोले - करमचंद ने यह डोली दान में दी है । इसका अभिप्राय है कि व्यक्ति ने जैसे कर्म किये वैसा ही शरीर मिल गया, अब शरीर का परिवर्तन तो हो ही नहीं सकता ।
Tuesday, 13 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
विनय-पत्रिका के एक पद में गोस्वामीजी जीवन यात्रा पर एक व्यंग्यात्मक चित्र प्रस्तुत करते हुए यात्रियों को सावधान कर रहे हैं - राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे । नाहीं तौ भव-बेगारि महँ परिहै ।। उन्होंने कहा - राम कहते चलो, राम कहते चलो । क्यों ? यदि न कहें तो क्या हानि होगी ? बोले - भई ! नहीं तो बेगार में पकड़ लिये जाओगे । बेगार की परम्परा अब तो देश में रही नहीं, लेकिन पहले थी । राजा-महाराजा या जमींदार होते थे । वे गाँव के लोगों को काम पर बुलाते थे । पर उस काम के बदले में मजदूरी नहीं दी जाती थी । कहा जाता था कि प्रजा होने के नाते यह तुम्हारा कर्तव्य था, तो तुमसे कर्तव्य का पालन कराया गया है, इसकी मजदूरी नहीं दी जायेगी । बेगार शब्द का अर्थ होता है कि जहाँ काम तो करना पड़ता है परन्तु मजदूरी प्राप्त नहीं होती । इसलिए गोस्वामीजी ने व्यंग्य किया कि अगर राम का नाम नहीं लोगे तो संसार वाले अपने-अपने बेगार में पकड़े बिना छोडेंगे नहीं । संसार वाले अपना काम तो ले लेंगे पर बदले में मजदूरी कुछ भी नहीं देंगे । इसलिए राम कहत चलु माने ? अगर कोई पकड़ने की चेष्टा करे और वह व्यक्ति बता दे कि हम आपके राज्य की प्रजा नहीं हैं, हम तो दूसरे राज्य की प्रजा हैं, तो दूसरा व्यक्ति छोड़ देगा कि भाई ! वह तो हमसे बड़ा राजा है, उसकी प्रजा हो तो बेगार लेने का अधिकार हमें नहीं है । गोस्वामीजी ने कहा - जब राम-राम कहते चलोगे, तो बेगार में पकड़ने वाले को याद दिला देना कि हम रामराज्य के नागरिक हैं, तुम्हारे राज्य के नागरिक नहीं हैं, तो बेगार से बच जाओगे । तो भई पहली सावधानी तो यह बरतो कि जब जीवन-यात्रा में चलो तो राम का नाम लेना मत भूलो ।
Monday, 12 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
वस्तुतः संसार में जितने जीव हैं वे सब तो यात्री हैं । और यह यात्रा इतनी लम्बी है कि न जाने कितने जन्मों से चल रही है । और न जाने कितने जन्मों तक चलती जायेगी । लेकिन कुछ विडम्बना इस यात्रा के साथ यह जुड़ी हुई है, जिसका अनुभव शायद प्रत्येक व्यक्ति को होता होगा कि हम और आप जब भौतिक यात्रा करते हैं, उसमें ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता जाता है आप यह सोचकर प्रसन्न होते हैं कि हम गंतव्य के निकट पहुँचते जा रहे हैं, और अन्त में यह संतोष होता है कि हम जहाँ पहुँचना चाहते थे, पहुँच गये । पर अगर हम और आप आंतरिक दृष्टि से विचार करके देखें कि जीवन यात्रा के संदर्भ में भी क्या यही अनुभव हमें और आपको हो रहा है ? इसका अभिप्राय है कि बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था तक ज्यों-ज्यों हम बढ़ते जाते हैं, तो क्या सचमुच हमें यह लगने लगता है कि जीवन के लक्ष्य के पास हम पहुँच गये ? गोस्वामीजी ने विनय-पत्रिका में कहा है कि सांसारिक यात्रा और जीवन यात्रा में अन्तर यह है कि सांसारिक यात्रा में समय बीतने के साथ हम अपने लक्ष्य के पास पहुँचते हैं, परन्तु हमारी जीवन यात्रा में ठीक उल्टी बात यह हो गयी कि ज्यों-ज्यों हम चल रहे हैं त्यों-त्यों हमारा लक्ष्य हमसे दूर हो रहा है । इसका अभिप्राय है कि लड़कपन में जो आनन्द था, बूढ़े होते-होते वह आनंद बढ़ गया है या खो गया है ? इसका उत्तर यही है कि वह आनन्द खो गया है । और अगर आनन्द खो गया है, चिन्ताएं बढ़ गयी हैं तो इससे सिद्ध हो रहा है कि हम लक्ष्य के पास नहीं पहुँचे बल्कि दूर होते गये । हम सबकी जीवन-यात्रा में यह जो विचित्रता है गोस्वामीजी ने इसका रामायण और विनय-पत्रिका के अनेकों प्रसंगों में बड़ा सुन्दर वर्णन किया है ।
Sunday, 11 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
जब भगवान राम महर्षि भरद्वाज से पूछ रहे थे - कहहू नाथ हम केहि मग जाहीं - आप बताइए मैं किस मार्ग से जाऊँ, तो इस समय भगवान राम के प्रिय सखा निषाद भी साथ में थे, और प्रभु का यह वाक्य सुनकर निषादराज तो आश्चर्य से प्रभु का मुँह ताकने लगे । क्योंकि गंगा पार उतारने के बाद निषादराज ने प्रभु से कहा कि आप मुझे साथ में ले लीजिए । प्रभु ने कहा, आप क्यों कष्ट करना चाहते हैं ? तो उन्होंने कहा, महाराज ! मैं आपके साथ रहकर आपको मार्ग दिखाऊँगा । अब आप जरा सोचिए कि जो व्यक्ति आपके साथ यह कहकर चला हो कि मैं आपको मार्ग दिखाऊँगा और उसी के सामने आप किसी दूसरे से पूछने लगें कि भाई ! सही-सही मार्ग बताओ तो इसका सीधा अर्थ यही हुआ कि मार्ग दिखाने वाले उस व्यक्ति पर आपको विश्वास नहीं है । और जब वे कह चुके हैं तो भी भगवान श्रीराघवेन्द्र पूछते क्यों हैं ? गोस्वामीजी का तात्पर्य है कि भगवान राम की यह यात्रा वस्तुतः हमारी और आपकी जीवन यात्रा है । जो समस्याएँ भगवान राम के जीवन में आयीं, हमारे और आपके जीवन की यात्रा में ऐसी समस्याएँ आती हैं । इसलिए अयोध्याकाण्ड में जब गोस्वामीजी तीनों यात्रियों के चलने की पद्धति, उनके प्रश्न, उनकी जिज्ञासा, उनका विश्राम तथा उनका दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं तब इसका फल क्या होना चाहिए ? गोस्वामीजी संकेत करते हुए कहते हैं कि इन तीनों पथिकों की यात्रा को जिन्होंने पूरा समझ लिया है उसके जीवन में उसका प्रभाव यह होता है कि वे संसार-पथ को अत्यंत सरलता से पूरा कर लेते हैं ।
Saturday, 10 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
भगवान श्रीराम ने मानवीय समस्याओं को जिस प्रकार स्वीकार किया उसे गोस्वामीजी ने सूत्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा कि अयोध्या से लेकर भगवान श्रीराम की चित्रकूट तक की यात्रा, या चित्रकूट से दण्डकारण्य तक की, अथवा दण्डकारण्य से लंका की यह जो यात्रा है, इस यात्रा की आवश्यकता है क्या ? इस यात्रा के बिना रामराज्य बन सकता था कि नहीं ? और रामराज्य बनाने के लिए तो महाराज श्री दशरथ ने गुरु वसिष्ठ को संदेश भेज ही दिया था कि कल अयोध्या के राजसिंहासन पर मैं श्रीराघवेन्द्र को अभिषिक्त करूँगा । तो फिर श्रीराम सिंहासन पर बैठ जाते और रामराज्य बन जाता । पर भगवान श्रीराम उस मार्ग को स्वीकार नहीं करते, बल्कि रामराज्य में विघ्न आ जाता है । तो, यह विध्न जो है वह ईश्वरत्व का लक्षण है या मनुष्यत्व का ? भला ईश्वर के जीवन में विध्न कैसा ? पर श्रीराम अपने जीवन में विध्न स्वीकार करते हैं । इसका अभिप्राय है कि उन्होंने अपने आपको मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया । गोस्वामीजी कहते हैं कि यह जो भगवान श्रीराम की यात्रा है, उस यात्रा का एक विशेष उद्देश्य है । और वह उद्देश्य क्या है ? यह हमें आगे चलकर दिखायी देता है ।
Friday, 9 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
शबरी जी से जब भगवान राम का संवाद होता है, तब भगवान पूछते हैं - शबरीजी ! क्या आप जनकनन्दिनी सीता जी की सूधि जानती हैं, आप बताइए कि जनकनन्दिनी सीता कहाँ हैं, कैसे मिलेंगी ? अब इसका सही उत्तर क्या है ? अगर इसका तात्विक उत्तर दिया जाय तो क्या शबरी जी इस तत्व को नहीं जानती हैं कि छाया सीता जी का अपहरण हुआ है ? वे भी कह सकती थीं कि न तो हरण हुआ है और न ही खोजने की आवश्यकता है । पर उन्होंने यह नहीं कहा और उसे यदि जाने भी दें तो इतना तो कह ही सकती हैं कि सर्वज्ञ ईश्वर मुझसे पूछ रहा है कि सीता जी कहाँ हैं ? यद्यपि भगवान श्रीराम के प्रश्न को सुनकर वे संकोच में गड़ गयी, परन्तु विनम्रतापूर्वक उन्हें यही कहना पड़ा - प्रभु ! आप पंपासर की यात्रा कीजिए, वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी । भरद्वाज जी कहते हैं - अच्छा ! आप इन विद्यार्थियों के पीछे जाइये । बाल्मीकि जी भी कहते हैं - अच्छा ! आप चित्रकूट में निवास कीजिए और शबरी जी कहती हैं कि आप सुग्रीव से मित्रता कीजिए । मानो ये जो मार्ग में मिलने वाले महापुरुष हैं, वे भगवान श्रीराघवेन्द्र के मनुष्यत्व का उद्देश्य समझते हैं कि श्रीराम वस्तुतः संसार के प्राणियों को, संसार के जीवों को, साधना का तत्व बताना चाहते हैं और साधना का सत्य बताने के लिए मानवीय जीवन में जो समस्याएँ आती हैं उन समस्याओं को भगवान श्रीराम ने अपने जीवन में स्वीकार किया तथा उनका मानवीय पद्धति से उन्होंने ऐसा समाधान बताया कि जिससे हमें और आपको साधना का सत्य मिले, तथा जीवन में सही-सही चलने की शिक्षा प्राप्त हो ।
Thursday, 8 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ............
सारा संसार ब्रह्म है, यह तत्वज्ञान है । लेकिन क्या इसके आधार पर सारे संसार का व्यवहार चलेगा ? जब आप एक-दूसरे से व्यवहार करेंगे तो व्यक्तियों को अलग-अलग मानकर उसकी अलग-अलग योग्यता के अनुसार ही व्यवहार करेंगे और यह जो भेद आप स्वीकार करते हैं, वह जीवन का व्यवहारिक सत्य है, इसकी अपेक्षा है । लेकिन इसके साथ-साथ तत्वज्ञान की भी आवश्यकता है । अर्जुन से भगवान ने कहा - अर्जुन ! विराट रूप देखे बिना यदि तुम लड़कर इन्हें मारते तो तुम्हें अभिमान हुए बिना न रहता कि मैंने इतने बड़े-बड़े योद्धाओं को मार डाला । लेकिन अब अन्तर यह पड़ गया कि यद्यपि तुम लड़ोगे और लोगों की दृष्टि में तुम्हारे द्वारा ही ये मारे भी जायेंगे, लेकिन तुम जिस सत्य का साक्षात्कार कर चुके हो उससे तुम्हें निरन्तर यह बोध बना रहेगा कि नहीं-नहीं, मारने वाले तो प्रभु हैं, मैं तो केवल इस मंच पर मारता हुआ दिखायी दे रहा हूँ । इसलिए दोनों की आवश्यकता है । व्यवहार में तुम लड़ो और आतंरिक रूप से, मैंने जो दृष्टि दी है, उसके द्वारा तुम्हारे कर्तृत्व का अभिमान मिटे, यही साधना और साध्य तत्व का सामंजस्य हैं ।
Wednesday, 7 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
भगवान कृष्ण ने ज्ञानमयी दृष्टि अर्जुन को दी तथा अर्जुन ने उस ज्ञानमयी दृष्टि से जब भगवान का विराट रूप देखा तो उसे दिखायी पड़ा कि भीष्म, कर्ण, द्रोण आदि जितने भी योद्धा हैं वे सब के सब भगवान के विराट के मुख में मरे हुए पड़े हैं । अर्जुन से भगवान पूछते हैं कि अर्जुन ! ये जो तुम्हें मरे हुए दिखाई दे रहे हैं वे तुम्हें अपनी आँखों से दिखाई दे रहे हैं या मैंने जो आँखें दी हैं उनसे दिखाई दे रहे हैं ? अर्जुन ने कहा - महाराज ! आपने जो आँखें दी हैं, उनसे ऐसा लग रहा है । भगवान ने कहा - अर्जुन ! मेरी दी हुई आँखों से जो दिखाई दे रहा है वही जब तुम्हारी आँखों से दिखाई देने लगे, तब तो बात पूरी होगी नहीं तो बात अधूरी रहेगी । जब मुझे दिखाई दे और तुम्हें न दिखाई दे तब तक पूर्णता नहीं है । फिर यदि चाहते तो अर्जुन भी यही बात कह सकते थे कि आपने विराट रूप दिखाया ही क्यों ? तो भगवान ने एक महत्वपूर्ण सूत्र देते हुए कहा - अर्जुन ! विराट रूप मैंने दिखाया केवल कर्तव्य का अभिमान मिटाने के लिए, साधन मिटाने के लिए नहीं दिखाया है । सचमुच यह बहुत ही गंभीर सूत्र है । इसका अभिप्राय है कि कर्तव्य के अभिमान का मिटना तो जीवन में परमावश्यक है, पर कर्तृत्व के अभिमान के मिटने का परिणाम कहीं यह न हो जाय कि व्यक्ति साधन ही करना बन्द कर दे, पुण्य और सत्कर्म करना भी बन्द कर दें । इसलिए जब भी साध्य तत्व से उतरकर साधना में आवें तब हमें जीवन में असीम दृष्टि के स्थान पर ससीम दृष्टि बनानी पड़ेगी, तभी हम व्यवहार चला पायेंगे ।
Tuesday, 6 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को विराट रूप दिखाते हैं और विराट रूप देखने के लिए भगवान अर्जुन को दिव्य दृष्टि भी देते हैं । तो भई ! जब भगवान ने अर्जुन को विराट रूप दिखा दिया और दिव्य दृष्टि दे ही दी तो फिर अर्जुन की वह दिव्य दृष्टि यदि जीवन भर बनी रहती, तो क्या बुराई थी ? उसे एक बार देकर पुनः वापस लौटा लेने की क्या आवश्यकता थी ? इसका क्या अभिप्राय है ? उसका भी मूल तत्व यही है कि विराट रूप का दर्शन कराकर भगवान ने अर्जुन को सत्य का साक्षात्कार कराया, साध्य का ज्ञान कराया । इसका अभिप्राय है कि जब हम ईश्वर के तत्व को जान लेते हैं, तो हमारे जीवन का जो साध्य तत्व है, जिसे हमें पाना है, उसका हमें बोध हो जाता है और साध्य तत्व का यह ज्ञान जीवन का महान फल है, तथा उस साध्य तत्व के ज्ञान के लिए ही भगवान ने अर्जुन को ज्ञानमयी दृष्टि दी । लेकिन भगवान ने तुरन्त वह दृष्टि वापस लौटा दी । परन्तु क्यों लौटा ली बस यही सबसे महत्वपूर्ण बात है । विराट रूप दिखाने के पश्चात भगवान ने अर्जुन की ओर देखा और बोले - अर्जुन ! कैसा लगा तुम्हें ? अर्जुन बोले - महाराज ! समस्या का समाधान हो गया । क्योंकि मैं लड़ने से ही डर रहा था, पर जब देख लिया कि ये सब मरे हुए हैं तब अब तो लड़ने की आवश्यकता नहीं है । बस भई ! यही सबसे बड़ी कठिनाई है । जिस आँख से साध्य का बोध हुआ, अर्जुन अगर उसी आँख से देखता रहे तब न तो वह धनुष उठायेगा, और न ही लड़ेगा । क्योंकि उसको तो दिखायी दे रहा है कि ये सब के सब मरे हुए हैं । याद रखियेगा, सर्वत्र यही समस्या है । रामायण में भी यदि सर्वत्र श्रीराम के केवल ईश्वरत्व का ही प्रतिपादन कर दिया जाए तो साधना का जो तत्व मनुष्य के जीवन में प्रकट करना चाहते हैं, वह संभव नहीं होगा । क्योंकि विराट की अनुभूति तथा विराट की दृष्टि के द्वारा तत्वज्ञान तो होता है पर व्यवहार नहीं चलता । व्यवहार जब चलेगा तो ससीम दृष्टि से ही चलेगा, असीम दृष्टि से नहीं चलेगा ।
Monday, 5 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
....कल से आगे.....
महर्षि भरद्वाज पहले भगवान राम से सांकेतिक भाषा में यह कहते हैं कि आप तो साक्षात ईश्वर हैं । इसलिए मार्ग का प्रश्न ही कहाँ है ? जो साध्य तत्व है उसके लिए भला मार्ग की क्या आवश्यकता है ? और आगे चलकर भगवान राम जब महर्षि बाल्मीकि से पूछते हैं कि मैं कहाँ रहूँ तो प्रारंभिक उत्तर में वहाँ भी आप वे ही दोनों बातें पायेंगे, जो परस्पर विरोधी हैं । भरद्वाज की बात भी परस्पर विरोधी है, क्योंकि भगवान को पहले मार्ग न बताना और बाद में मार्गदर्शन देना । भगवान राम ने बाल्मीकि जी से कहा - मैं कहाँ रहूँ आप बताइए, तब पहले तो महर्षि मुस्कराने लगे और कुछ देर उत्तर देने से रुक गये । परन्तु प्रभु ने आश्चर्य से मुनि की ओर देखा - महाराज ! इस नन्हे से प्रश्न का उत्तर देने में इतना विलम्ब क्यों लग रहा है । तो महर्षि ने तुरन्त कहा - पहले आप यह बता दीजिए कि आप कहाँ नहीं हैं ? जब आप बता देंगे कि यहाँ नहीं है, तो हम कह देंगे कि अमुक स्थान पर रहिए । बाल्मीकि जी के ऐसा कहने के बाद भगवान राम ने उनके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया । भगवान श्रीराघवेन्द्र ने नहीं बताया कि मैं कहाँ हूँ, किन्तु भगवान राम का उत्तर बिना सुने ही महर्षि बाल्मीकि ने कहना प्रारंभ कर दिया - राम ! अब मैं आपको वे स्थान बता रहा हूँ जहाँ आप श्री सीताजी तथा लक्ष्मण जी के साथ निवास कीजिए । तो क्या ये परस्पर विरोधी बातें नहीं लगती ? महर्षि भरद्वाज और महर्षि बाल्मीकि के कथन का सामंजस्य यह है कि साध्य तत्व के ज्ञान के बिना तो ये विराट दृष्टि तत्वज्ञान के लिए उपयोगी है, पर अगर विराट दृष्टि सर्वदा बनी रहे तो साधना होना समाप्त हो जायेगा । विराट तत्व का जो बोध है, ईश्वरत्व का बोध है, उसके द्वारा मनुष्य के जीवन में ज्ञान की उपलब्धि तो हो जायेगी, साध्य पक्ष की अनुभूति तो हो जायेगी पर साधन की स्थिति नहीं बन पायेगी । गीता और रामचरितमानस दोनों ही ग्रन्थों से हम इसके दृष्टांत ले सकते हैं ।
महर्षि भरद्वाज पहले भगवान राम से सांकेतिक भाषा में यह कहते हैं कि आप तो साक्षात ईश्वर हैं । इसलिए मार्ग का प्रश्न ही कहाँ है ? जो साध्य तत्व है उसके लिए भला मार्ग की क्या आवश्यकता है ? और आगे चलकर भगवान राम जब महर्षि बाल्मीकि से पूछते हैं कि मैं कहाँ रहूँ तो प्रारंभिक उत्तर में वहाँ भी आप वे ही दोनों बातें पायेंगे, जो परस्पर विरोधी हैं । भरद्वाज की बात भी परस्पर विरोधी है, क्योंकि भगवान को पहले मार्ग न बताना और बाद में मार्गदर्शन देना । भगवान राम ने बाल्मीकि जी से कहा - मैं कहाँ रहूँ आप बताइए, तब पहले तो महर्षि मुस्कराने लगे और कुछ देर उत्तर देने से रुक गये । परन्तु प्रभु ने आश्चर्य से मुनि की ओर देखा - महाराज ! इस नन्हे से प्रश्न का उत्तर देने में इतना विलम्ब क्यों लग रहा है । तो महर्षि ने तुरन्त कहा - पहले आप यह बता दीजिए कि आप कहाँ नहीं हैं ? जब आप बता देंगे कि यहाँ नहीं है, तो हम कह देंगे कि अमुक स्थान पर रहिए । बाल्मीकि जी के ऐसा कहने के बाद भगवान राम ने उनके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया । भगवान श्रीराघवेन्द्र ने नहीं बताया कि मैं कहाँ हूँ, किन्तु भगवान राम का उत्तर बिना सुने ही महर्षि बाल्मीकि ने कहना प्रारंभ कर दिया - राम ! अब मैं आपको वे स्थान बता रहा हूँ जहाँ आप श्री सीताजी तथा लक्ष्मण जी के साथ निवास कीजिए । तो क्या ये परस्पर विरोधी बातें नहीं लगती ? महर्षि भरद्वाज और महर्षि बाल्मीकि के कथन का सामंजस्य यह है कि साध्य तत्व के ज्ञान के बिना तो ये विराट दृष्टि तत्वज्ञान के लिए उपयोगी है, पर अगर विराट दृष्टि सर्वदा बनी रहे तो साधना होना समाप्त हो जायेगा । विराट तत्व का जो बोध है, ईश्वरत्व का बोध है, उसके द्वारा मनुष्य के जीवन में ज्ञान की उपलब्धि तो हो जायेगी, साध्य पक्ष की अनुभूति तो हो जायेगी पर साधन की स्थिति नहीं बन पायेगी । गीता और रामचरितमानस दोनों ही ग्रन्थों से हम इसके दृष्टांत ले सकते हैं ।
Sunday, 4 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ......
गत 2 दिसम्बर के प्रसंग से आगे.....
श्री राघवेन्द्र और महर्षि भरद्वाज में जो अनोखा वार्तालाप हुआ, वस्तुतः उसमें ईश्वरत्व और मनुष्यत्व दोनों तत्वों का अनोखा समन्वय विद्यमान है । भगवान श्रीराम का जो प्रश्न है उस प्रश्न को पढ़कर ऐसा नहीं लगता है कि यह प्रश्न ईश्वर के द्वारा किया गया है । यह प्रश्न तो एक मनुष्य का, एक जिज्ञासु का प्रश्न प्रतीत हो रहा है । और महर्षि ने प्रारंभ में तो - सुगम सकल मग तुम्ह कहँ अहहीं । - वाक्य के द्वारा सांकेतिक भाषा में श्रीराम के ईश्वरत्व की ओर संकेत कर दिया, लेकिन ईश्वरत्व की ओर संकेत करने के बाद यदि वे कहीं रुक जाते कि तुम्हें मार्ग बताने की आवश्यकता नहीं है, या यह कह देते कि तुम तो साक्षात ब्रह्म हो, तुम्हें मार्ग कौन दिखा सकता है तो लगता कि प्रारंभ में जो उन्होंने कहा था उसी का अन्त तक निर्वाह किया । लेकिन प्रारंभ में श्रीराम की ईश्वरता की ओर संकेत करने के बाद भगवान श्रीराघवेन्द्र के मार्गदर्शन के लिए उन्होंने विद्यार्थियों को बुलाया और वे विद्यार्थीगण मार्ग दिखाते हुए भगवान को लेकर गये ।
......आगे कल ....
श्री राघवेन्द्र और महर्षि भरद्वाज में जो अनोखा वार्तालाप हुआ, वस्तुतः उसमें ईश्वरत्व और मनुष्यत्व दोनों तत्वों का अनोखा समन्वय विद्यमान है । भगवान श्रीराम का जो प्रश्न है उस प्रश्न को पढ़कर ऐसा नहीं लगता है कि यह प्रश्न ईश्वर के द्वारा किया गया है । यह प्रश्न तो एक मनुष्य का, एक जिज्ञासु का प्रश्न प्रतीत हो रहा है । और महर्षि ने प्रारंभ में तो - सुगम सकल मग तुम्ह कहँ अहहीं । - वाक्य के द्वारा सांकेतिक भाषा में श्रीराम के ईश्वरत्व की ओर संकेत कर दिया, लेकिन ईश्वरत्व की ओर संकेत करने के बाद यदि वे कहीं रुक जाते कि तुम्हें मार्ग बताने की आवश्यकता नहीं है, या यह कह देते कि तुम तो साक्षात ब्रह्म हो, तुम्हें मार्ग कौन दिखा सकता है तो लगता कि प्रारंभ में जो उन्होंने कहा था उसी का अन्त तक निर्वाह किया । लेकिन प्रारंभ में श्रीराम की ईश्वरता की ओर संकेत करने के बाद भगवान श्रीराघवेन्द्र के मार्गदर्शन के लिए उन्होंने विद्यार्थियों को बुलाया और वे विद्यार्थीगण मार्ग दिखाते हुए भगवान को लेकर गये ।
......आगे कल ....
Saturday, 3 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने भगवान श्री राघवेन्द्र तथा विदेहनन्दिनी श्रीसीताजी के विवाह का बड़ा ही मधुर चित्र प्रस्तुत किया। किन्तु अनोखापन यह है कि उस वर्णन में वे अपनी लेखनी के माध्यम से एक ओर तो दिव्य रस की सृष्टि करते हैं, तथा दूसरी ओर वे उसमें अपनी दार्शनिक शैली को अवश्य जोड़ देते हैं। यह भगवान श्रीराम का विवाह जो त्रेतायुग का सत्य है, उसे हम केवल त्रेतायुग या भूतकाल के सत्य के रूप में ही देखने की चेष्टा न करें, अपितु प्रयत्न तो यह करना चाहिए कि भूतकाल का यह सत्य हमारे वर्तमान जीवन का सत्य बन जाय। त्रेतायुग में महाराज श्री जनक के मण्डप में संपन्न होने वाले उस विवाह की समग्र प्रक्रिया हमारे जीवन में ही संपन्न हो जाय। हम स्वयं जनक बन जायँ, सुनयना बन जायँ, अथवा जनकपुरवासिनी स्त्रियों में से कोई भावमयी स्त्री बनकर भगवान से नाता जोड़ सकें।
गोस्वामीजी कहते हैं कि वस्तुतः श्रीराम को दूल्हा बनाने में लाभ-ही-लाभ है। आपने देखा होगा कि विवाह की एक परम्परा है कि दूल्हा घोड़े पर बैठकर चलता है। जब दूल्हे के रूप में श्रीराम का साक्षात्कार हुआ तो तुलसीदासजी कहते हैं कि अब बहुत अच्छा दुल्हा मिला; बस ! इनको तुरन्त ही घोड़े पर बैठा दो। एक पाठक ने गोस्वामीजी से पूछा कि महाराज ! जरा यह तो बता दीजिए कि यह घोड़ा अयोध्या का है कि जनकपुर का ? तो उन्होंने कहा कि भई! यह घोड़ा न तो जनकपुर का है और न ही अयोध्या का, अपितु यह घोड़ा तो प्रभु को हम लोगों ने ही दिया है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति के पास एक-एक घोड़ा विद्यमान है तथा हम यदि प्रभु का विवाह अपने अन्तःकरण के मण्डप में संपन्न कराना चाहें तो भगवान श्रीराघवेन्द्र को उस अश्व पर विराजमान कर सकते हैं। जब दूल्हा के वेश में श्रीराम ड्योढ़ी पर खड़े थे तो तुलसीदासजी ने ने तुरन्त अपने मन का घोड़ा श्रीराघवेन्द्र के समक्ष खड़ा कर दिया तथा कहा कि महाराज इस अवसर पर आपको चंचल घोड़ा ही तो चाहिए इसलिए इस चंचल मन के घोड़े पर बैठ जाइये न ! इस घोड़े अर्थात मन को हम वश में करने का प्रयास करें इसके स्थान पर यदि आप ही इसे अपने वश में कर लें तो सबसे अच्छा रहेगा।
गोस्वामीजी कहते हैं कि वस्तुतः श्रीराम को दूल्हा बनाने में लाभ-ही-लाभ है। आपने देखा होगा कि विवाह की एक परम्परा है कि दूल्हा घोड़े पर बैठकर चलता है। जब दूल्हे के रूप में श्रीराम का साक्षात्कार हुआ तो तुलसीदासजी कहते हैं कि अब बहुत अच्छा दुल्हा मिला; बस ! इनको तुरन्त ही घोड़े पर बैठा दो। एक पाठक ने गोस्वामीजी से पूछा कि महाराज ! जरा यह तो बता दीजिए कि यह घोड़ा अयोध्या का है कि जनकपुर का ? तो उन्होंने कहा कि भई! यह घोड़ा न तो जनकपुर का है और न ही अयोध्या का, अपितु यह घोड़ा तो प्रभु को हम लोगों ने ही दिया है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति के पास एक-एक घोड़ा विद्यमान है तथा हम यदि प्रभु का विवाह अपने अन्तःकरण के मण्डप में संपन्न कराना चाहें तो भगवान श्रीराघवेन्द्र को उस अश्व पर विराजमान कर सकते हैं। जब दूल्हा के वेश में श्रीराम ड्योढ़ी पर खड़े थे तो तुलसीदासजी ने ने तुरन्त अपने मन का घोड़ा श्रीराघवेन्द्र के समक्ष खड़ा कर दिया तथा कहा कि महाराज इस अवसर पर आपको चंचल घोड़ा ही तो चाहिए इसलिए इस चंचल मन के घोड़े पर बैठ जाइये न ! इस घोड़े अर्थात मन को हम वश में करने का प्रयास करें इसके स्थान पर यदि आप ही इसे अपने वश में कर लें तो सबसे अच्छा रहेगा।
Friday, 2 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
आज अगहन मास शुक्ल पक्ष चतुर्थी है, कल पंचमी भगवान श्री सीताराम का विवाह है, इसलिए विषयांतर होते हुए आइये परम पूज्य गुरुदेव भगवान की दृष्टि से विवाह प्रसंग में प्रवेश करें -
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच्.......
विवाह का तात्पर्य है संबंध की स्थापना। जिस समय जनकपुरवासिनी स्त्रियों की दृष्टि भगवान श्रीराम के सौन्दर्य पर जाती है उस समय उन सबके अन्तःकरण में एक बड़ी विचित्र आकांक्षा उत्पन्न होती है। यद्यपि किसी आकर्षक वस्तु को देखकर उसे प्राप्त करने की अभिलाषा अस्वाभाविक नहीं कही जा सकती, और यदि गोस्वामीजी ऐसा लिखते कि भगवान श्री राघवेन्द्र के सौन्दर्य को देखकर जनकपुरवासिनी स्त्रियाँ सम्मोहित हो गयीं तथा उनके अन्तर्मन में श्रीराम के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ, तो स्वाभाविक ही होता। लेकिन तुलसीदासजी उसे एक भिन्न रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि श्रीराम का सौन्दर्य देखकर जनकपुरवासिनी स्त्रियों को विदेहनन्दिनी के सौन्दर्य की स्मृति हो जाती है, तथा प्रत्येक स्त्री के अन्तःकरण में यही संकल्प स्फुरित होता है कि यदि श्रीराम का विवाह सीता से हो जाय तो कितना अच्छा हो। जब उनसे पूछा गया कि यदि सीता का श्रीराम से विवाह हो जायेगा तो इससे आप लोगों को क्या लाभ होगा ? तब उन सखियों ने यही कहा कि इसमें लाभ-हानि का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि हमारे अन्तःकरण में तो केवल इनसे संबंध जोड़ने की आकांक्षा है। किसी रसिक भक्त ने प्रश्न कर दिया कि यदि सीताजी से विवाह होगा तब तो विदेहनन्दिनी से श्रीराम का नाता जुड़ेगा, तुम्हारा संबंध तो जुड़ेगा नहीं; और आप लोगों को तो स्वयं का नाता जोड़ना चाहिए, न कि जनकनन्दिनी का ? तो सखियाँ कहती हैं कि ना-ना ! इन्हें देखकर तो हमारे अन्तःकरण में यह निश्चय हो गया कि इनसे सीधे नाता नहीं जोड़ना चाहिए, अपितु श्रीराम से संबंध तो विदेहनन्दिनी के माध्यम से ही जोड़ना उचित रहेगा। जनकपुरवासिनी स्त्रियों को यह भलीभाँति ज्ञात है कि ईश्वर से यदि संबंध जुड़ेगा तो श्रीसीताजी के नाते से ही जुड़ेगा, सीधे हमारे नाते से नहीं। अगर भक्ति-स्वरूपा श्रीजानकीजी से हमारा नाता नहीं होगा तो समस्त विशेषताओं के होते हुए भी हम लोग प्रभु को आकृष्ट करने में समर्थ नहीं होंगे। इस विवाह का मुख्य तात्पर्य है जीव और ईश्वर में संबंध स्थापित करना, और संबंध स्थापित करने के लिए जिस मूल केन्द्र की अपेक्षा है वही जनकनन्दिनी श्रीसीता हैं।
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच्.......
विवाह का तात्पर्य है संबंध की स्थापना। जिस समय जनकपुरवासिनी स्त्रियों की दृष्टि भगवान श्रीराम के सौन्दर्य पर जाती है उस समय उन सबके अन्तःकरण में एक बड़ी विचित्र आकांक्षा उत्पन्न होती है। यद्यपि किसी आकर्षक वस्तु को देखकर उसे प्राप्त करने की अभिलाषा अस्वाभाविक नहीं कही जा सकती, और यदि गोस्वामीजी ऐसा लिखते कि भगवान श्री राघवेन्द्र के सौन्दर्य को देखकर जनकपुरवासिनी स्त्रियाँ सम्मोहित हो गयीं तथा उनके अन्तर्मन में श्रीराम के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ, तो स्वाभाविक ही होता। लेकिन तुलसीदासजी उसे एक भिन्न रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि श्रीराम का सौन्दर्य देखकर जनकपुरवासिनी स्त्रियों को विदेहनन्दिनी के सौन्दर्य की स्मृति हो जाती है, तथा प्रत्येक स्त्री के अन्तःकरण में यही संकल्प स्फुरित होता है कि यदि श्रीराम का विवाह सीता से हो जाय तो कितना अच्छा हो। जब उनसे पूछा गया कि यदि सीता का श्रीराम से विवाह हो जायेगा तो इससे आप लोगों को क्या लाभ होगा ? तब उन सखियों ने यही कहा कि इसमें लाभ-हानि का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि हमारे अन्तःकरण में तो केवल इनसे संबंध जोड़ने की आकांक्षा है। किसी रसिक भक्त ने प्रश्न कर दिया कि यदि सीताजी से विवाह होगा तब तो विदेहनन्दिनी से श्रीराम का नाता जुड़ेगा, तुम्हारा संबंध तो जुड़ेगा नहीं; और आप लोगों को तो स्वयं का नाता जोड़ना चाहिए, न कि जनकनन्दिनी का ? तो सखियाँ कहती हैं कि ना-ना ! इन्हें देखकर तो हमारे अन्तःकरण में यह निश्चय हो गया कि इनसे सीधे नाता नहीं जोड़ना चाहिए, अपितु श्रीराम से संबंध तो विदेहनन्दिनी के माध्यम से ही जोड़ना उचित रहेगा। जनकपुरवासिनी स्त्रियों को यह भलीभाँति ज्ञात है कि ईश्वर से यदि संबंध जुड़ेगा तो श्रीसीताजी के नाते से ही जुड़ेगा, सीधे हमारे नाते से नहीं। अगर भक्ति-स्वरूपा श्रीजानकीजी से हमारा नाता नहीं होगा तो समस्त विशेषताओं के होते हुए भी हम लोग प्रभु को आकृष्ट करने में समर्थ नहीं होंगे। इस विवाह का मुख्य तात्पर्य है जीव और ईश्वर में संबंध स्थापित करना, और संबंध स्थापित करने के लिए जिस मूल केन्द्र की अपेक्षा है वही जनकनन्दिनी श्रीसीता हैं।
Thursday, 1 December 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ......
....कल से आगे .....
भगवान राम ने मनुष्य के समान आचरण करते हुए हमें और आपको संकेत दिया कि जब कभी जीवन में मार्ग की समस्या आये तो हम क्या करें ? प्रभु से पूछा गया कि पहले कभी आपने यह प्रश्न क्यों नहीं किया ? प्रभु ने कहा - भई ! पहली यात्रा में तो गुरु विश्वामित्र साथ थे, इसलिए हमें मार्ग ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं थी । पर इस समय हमें मार्ग दिखाने वाले की आवश्यकता है । भगवान कहते हैं - जब कभी जीवन में द्विविधा आये, मार्ग के विषय में कोई प्रश्न उत्पन्न हो, तो त्रिवेणी के तट पर चले जाइए और भरद्वाज को ढूँढ़िये, तथा त्रिवेणी के तट पर भरद्वाज जी से जिज्ञासा कीजिए कि जीवन का मार्ग कौन-सा है ? महर्षि बाल्मीकि के आश्रम में पहुँच जाइये और उनसे प्रश्न पूछिये कि जीवन का लक्ष्य क्या है ? अभिप्राय यह है कि प्रभु श्रीराम की ईश्वर के रूप में पूजा कीजिए, मनुष्य के रूप में उनके चरित्र को ह्रदयंगम कीजिये । भगवान राम ईश्वरत्व और मनुष्यत्व के बीच में सेतु हैं । ईश्वर हैं, ठीक है, लेकिन ईश्वर होने से ही काम हीं बना इसलिए मनुष्य बने । और मनुष्य हैं, यह भी अधूरी बात है क्योंकि उसमें भी ईश्वर के बिना पूर्णता नहीं है । भगवान राम और तत्वज्ञ मुनि में जो मीठा वार्तालाप हुआ इस प्रश्न को लेकर, तथा इसका जो समाधान दिया गया उसकी चर्चा हम आगे करेंगे ।
भगवान राम ने मनुष्य के समान आचरण करते हुए हमें और आपको संकेत दिया कि जब कभी जीवन में मार्ग की समस्या आये तो हम क्या करें ? प्रभु से पूछा गया कि पहले कभी आपने यह प्रश्न क्यों नहीं किया ? प्रभु ने कहा - भई ! पहली यात्रा में तो गुरु विश्वामित्र साथ थे, इसलिए हमें मार्ग ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं थी । पर इस समय हमें मार्ग दिखाने वाले की आवश्यकता है । भगवान कहते हैं - जब कभी जीवन में द्विविधा आये, मार्ग के विषय में कोई प्रश्न उत्पन्न हो, तो त्रिवेणी के तट पर चले जाइए और भरद्वाज को ढूँढ़िये, तथा त्रिवेणी के तट पर भरद्वाज जी से जिज्ञासा कीजिए कि जीवन का मार्ग कौन-सा है ? महर्षि बाल्मीकि के आश्रम में पहुँच जाइये और उनसे प्रश्न पूछिये कि जीवन का लक्ष्य क्या है ? अभिप्राय यह है कि प्रभु श्रीराम की ईश्वर के रूप में पूजा कीजिए, मनुष्य के रूप में उनके चरित्र को ह्रदयंगम कीजिये । भगवान राम ईश्वरत्व और मनुष्यत्व के बीच में सेतु हैं । ईश्वर हैं, ठीक है, लेकिन ईश्वर होने से ही काम हीं बना इसलिए मनुष्य बने । और मनुष्य हैं, यह भी अधूरी बात है क्योंकि उसमें भी ईश्वर के बिना पूर्णता नहीं है । भगवान राम और तत्वज्ञ मुनि में जो मीठा वार्तालाप हुआ इस प्रश्न को लेकर, तथा इसका जो समाधान दिया गया उसकी चर्चा हम आगे करेंगे ।
Wednesday, 30 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
वर्णन आता है कि भगवान राम महर्षि भरद्वाज जी से कहते हैं - मुझे मार्ग बताइए । भगवान राम ने जो प्रश्न किया वह मनुष्य के जीवन का शाश्वत प्रश्न है । मनुष्य के जीवन में जो जिज्ञासाएं हैं, प्रश्न हैं, वे केवल त्रेतायुग के ही नहीं, अपितु प्रत्येक युग के प्रश्न हैं । सांसारिक स्थान में भी जब हम कहीं पहुँचना चाहते हैं, तब ठीक-ठीक मार्ग से ही चलकर पहुँच पाते हैं । और आगे चलकर भगवान राम इसी क्रम को बढ़ाते हैं । बाल्मीकि जी से पूछते हैं कि महाराज, मैं कहाँ जाऊँ ? - प्रभु का अभिप्राय था कि मार्ग का पता चल गया, पर मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है ? भरद्वाज और बाल्मीकि दोनों ज्ञानी हैं । भरद्वाज से जब भगवान राम ने पूछा - मैं किस मार्ग से जाऊँ, जीवन में सही मार्ग कौन-सा है ? इसका तात्पर्य है कि भगवान राम एक मनुष्य की भाँति पूछ रहे हैं कि उचित मार्ग कौन-सा है ।
.....आगे कल ...
.....आगे कल ...
Tuesday, 29 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
भगवान राम के चरित्र को आप यदि रामचरितमानस में देखें तो आपको यह लगेगा कि प्रभु के चरित्र में जहाँ मनुष्यत्व से काम नहीं चल सकता वहाँ पर ईश्वरत्व की भी आवश्यकता है । क्योंकि भई ! ईश्वरत्व यदि न होता तो रामायण में भगवान राम के कई जो कार्य थे वे अधूरे रह जाते । लेकिन साधारणतया भगवान राम बार-बार मनुष्य के समान ही व्यवहार करते हैं । हाँ ! यदा-कदा ईश्वरत्व भी दिखा देते हैं । जैसे कौसल्या अम्बा के सामने दिखाया । रामचरितमानस में लिखा हुआ है कि भगवान राम ने माँ के सामने विराट रूप प्रगट किया । यद्यपि विराट रूप दिखलाने के बाद भगवान को कहना तो यह चाहिए था कि अब तुमने तो पहचान लिया कि मैं ईश्वर हूँ, अब तो तुम्हें भ्रम नहीं होगा । किन्तु प्रभु ने ऐसा नहीं कहा । अपितु, गोस्वामीजी कहते हैं कि अपना ईश्वरत्व दिखाने के बाद कौसल्या अम्बा से हाथ जोड़कर कहने लगे - माँ ! मेरी प्रार्थना है कि यह बात आप किसी को मत बताइयेगा कि मैं ईश्वर हूँ । प्रभु का अभिप्राय था कि अगर मैं ईश्वरत्व न बताऊँ तो माँ ज्ञान से वंचित रहेगी, और यदि उन्होंने मुझे केवल ईश्वर ही मान लिया, तो मैं माँ के प्यार से वंचित हो जाऊँगा । और दोनों बातें बनी रहें, इसका उपाय यही है कि माँ को ज्ञान भी मिल जाय पर वह ज्ञान हमारे वात्सल्य में बाधक न बनने पाये । अगर माँ यह समझती रहीं कि यह साक्षात ईश्वर है तो न गोद में सुलावेंगी, और न ही मुझे दूध पिलावेंगी और न तो प्यार करेंगी, वरन ईश्वर समझ कर मेरी पूजा करने लगेंगी । इसलिए ज्ञान और प्रेम दोनों बना रहे ।
Monday, 28 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
गोस्वामीजी कहते हैं कि भगवान राम साक्षात ब्रह्म हैं । लेकिन जब जन्म लेते हैं तो आपको रामायण में श्रीराम का चरित्र मिलेगा, और जहाँ पर आपको श्रीराम का चरित्र मिले, वहाँ आप उनके चरित्र से सीखिए । परन्तु रामायण में भगवान राम का केवल मानवीय चरित्र हीं नहीं बल्कि उसमें एक ओर यदि श्रीराम का मनुष्यत्व मिलेगा तो दूसरी ओर ईश्वरत्व का भी दर्शन आपको होगा । भगवान राम ने क्या किया ? इसका उत्तर देते हुए गोस्वामीजी ने ठीक वही वाक्य कहा जो अभी आपसे कह रहा हूँ । वे कहते हैं कि 'चरित करत नर अनुहरत' किसलिए ? बोले ' संसृति सागर सेतु' भगवान राम ने अपने अवतार के द्वारा एक पुल बनाया था तथा उस पुल के द्वारा ईश्वर और मनुष्य को जोड़ दिया । ईश्वर होते हुए भी मनुष्य बने तथा मनुष्य के रूप में चरित्र किया । और चरित्र करते हुए, मनुष्य के जीवन में जो समस्याएँ होती हैं उनको उन्होंने अपने जीवन में स्वीकार किया और मनुष्य के रूप में, मानवीय समस्याओं को किस प्रकार सुलझाया जाय उसे प्रस्तुत किया ।
Sunday, 27 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
ईश्वर और मनुष्य का जो तत्व तुलसीदासजी दे रहे हैं उस पर आप ध्यान दीजिए । भगवान राम ईश्वर हैं तथा ईश्वर ने आकाशवाणी में कहा - देवताओं मत डरो, मैं जाऊँगा और तुम्हारे लिए मनुष्य बनूँगा । यहाँ पर समस्या रावण को मारने की है । किन्तु प्रश्न यह है कि बिना संसार में आये क्या ईश्वर रावण को मार सकता था कि नहीं ? अगर वह रावण को नहीं मार सकता तो काहे का ईश्वर है । लेकिन भगवान ने तो बड़ी अनोखी बात कह दी । भगवान चाहते तो अपने संकल्प से ही रावण को मार डालते और देवताओं से कहते कि देवताओं, तुम्हारी समस्या का समाधान हो गया, यह लो रावण को मैंने मार दिया । लेकिन भगवान ने जब कहा कि मैं मनुष्य बनूँगा, उससे कुछ और पता चला । इसका अभिप्राय है कि अगर मनुष्य ही सब कुछ कर लेता तो ईश्वर की आवश्यकता नहीं थी । और यदि ईश्वर अपने ईश्वरत्व के द्वारा करना चाहे तो उसे मनुष्य बनने की आवश्यकता नहीं । तब भगवान ने दोनों में सामंजस्य स्थापित किया कि यद्यपि हैं तो वे साक्षात ईश्वर, परन्तु ईश्वर होते हुए भी उन्होंने मनुष्य के रूप में अपने को प्रकट किया तो इसका तात्पर्य बड़ा अनोखा है । इसके द्वारा गोस्वामीजी ने एक अनोखा सूत्र संसार को दिया । गोस्वामीजी कहते हैं कि वस्तुतः ईश्वर और मनुष्य में दूरी थी । लगता था कि ईश्वर उधर है और मनुष्य इधर है । ईश्वर सबसे बड़ा है और मनुष्य सबसे छोटा है । किन्तु जैसे नदी के दो किनारे होते हैं तथा दोनों किनारों में दूरी होने के कारण एक किनारे का व्यक्ति दूसरे किनारे वाले व्यक्ति से दूर है । पर अगर उस नदी के दोनों किनारों के ऊपर पुल बना दिया जाय तो उसका परिणाम होगा कि दोनों किनारों के लोग एक दूसरे से मिल जायेंगे । ठीक इसी प्रकार श्रीराम ने भी ईश्वर और मनुष्य के बीच की दूरी को बड़े सुन्दर रूप में जोड़ा ।
Saturday, 26 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
रावण के अत्याचार से संत्रस्त होने के बाद पृथ्वी और देवता जब ब्रह्मा के पास गये, तब ब्रह्मा ने पहला वाक्य कहा - पृथ्वी, देवताओं, मुनियों ! मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं पृथ्वी बना सकता हूँ, रावण का निर्माण कर सकता हूँ, पर इसके बाद भी रावण को नियंत्रित करना मेरे वश की बात नहीं है और तब ब्रह्मा ने एक बड़ा ही सुन्दर सूत्र दिया । यद्यपि ब्रह्मा यह कह सकते थे कि मनुष्य के सामर्थ्य की सीमा समाप्त हो गयी है । उसे सुनकर मनुष्य को बड़ी निराशा हो जाती कि हम कुछ नहीं कर सकते । पर ब्रह्मा ने कहा कि नहीं, जितनी हमारी सामर्थ्य है, उस सामर्थ्य का हम सदुपयोग करें । अगर न करें, तो भी हम सही मार्ग पर नहीं हैं । निष्क्रिय होकर सामर्थ्य और पौरुष का प्रयोग न करना भी व्यक्ति के लिए उपयुक्त नहीं है । लेकिन जब सारे पुरुषार्थ की सीमा समाप्त हो जाय तो उस समय अगर हमारी वृत्ति ईश्वर की ओर न जाय तो भी हम सही नहीं हैं । तो बुद्धि के देवता ब्रह्मा ने सूत्र दिया कि पृथ्वी ! घबराने की आवश्यकता नहीं है । कहा - पृथ्वी ! मैं भी अविनाशी नही हूँ, तुम भी अविनाशी नहीं हो, हम सब नाशवान हैं । पर इस विनाशी के पीछे जो अविनाशी तत्व है अब उसकी ओर ध्यान दो, वह मेरा भी सहायता करेगा, तुम्हारी भी सहायता करेगा । और लिखा हुआ है कि तब ईश्वर की प्रार्थना प्रारंभ हुई । यही साधना का क्रम है । सामर्थ्य की सीमा समाप्त हुई, बुद्धि ने ईश्वर की ओर इंगित किया । और जब प्रेमपूर्वक ईश्वर की प्रार्थना की गई तब अन्त में आकाशवाणी हुई - ईश्वर ने कहा कि मैं जाऊँगा और तुम्हारे लिए मनुष्य बनूँगा ।
Friday, 25 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
यदि यह प्रश्न किया जाये कि ईश्वर की आवश्यकता जीवन में है या नहीं । मनुष्य के पुरुषार्थ की, व्यक्ति के सामर्थ्य की कोई सीमा है या नहीं ? जो लोग पुरुषार्थ का गुणगान करने वाले हैं वे तो यही कहेंगे कि मनुष्य के पुरुषार्थ की कोई सीमा नहीं है । मनुष्य के लिए कुछ असम्भव नहीं है । एक सज्जन ने मुझसे दोहराया कि नेपोलियन ने कहा है कि यह जो 'असम्भव' शब्द है उसको शब्दकोश से निकाल देना चाहिए । मैंने कहा कि आप जिसका उदाहरण दे रहे हैं, उसके जीवन का अन्तिम परिणाम क्या हुआ, आपको पता है ? जो 'असम्भव' शब्द निकालने वाला था, अन्त में एक द्वीप में एक कैदी के रूप में किस तरह मरा । यदि सब कुछ सम्भव होता तो बेचारा क्या अपने आप को कैद से भी छुड़ा न पाता ? मनुष्य को निष्क्रिय बनाने की आवश्यकता नहीं है, मनुष्य में इतनी क्षमता और पुरुषार्थ है कि वह बहुत कुछ कर सकता है । पर बहुत कुछ करने के बाद भी मनुष्य को कहीं न कहीं जाकर यह अनुभव होता है कि कुछ काम हमसे नहीं हो सकते । जब ब्रह्मा तक यह बात कहते हैं तब तो मनुष्य की यह धृष्टता ही होगी यदि वह कहे कि कुछ असम्भव नहीं है । जब पृथ्वी ने ब्रह्मा से कहा कि संसार का निर्माण तो आपने किया है, मेरा भी निर्माण आपने किया है, इसलिए रावण की समस्या का समाधान आप दे सकते हैं, तब ब्रह्मा अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं । ब्रह्मा रामचरितमानस की भाषा में बुद्धि के देवता हैं और बुद्धि के देवता ने, सृष्टि के निर्माता ने जो सत्य स्वीकार किया, उसको अगर हम न स्वीकार करें, हमारी बुद्धि न स्वीकार करे, तो यह मात्र अभिमान है और कुछ नहीं ।
Thursday, 24 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
श्रीराम का मनुष्यत्व और श्रीराम का ईश्वरत्व यह दो पक्ष है तथा इस सन्दर्भ में अलग-अलग मान्यताएँ हैं । गोस्वामीजी ने इसका बड़ा सुन्दर सामंजस्य करते हुए कहा कि श्रीराम को जब मनुष्य रूप में देखिए तो चरित्र देखिए और जब ईश्वर के रूप में देखिए तो लीला देखिए । गोस्वामीजी ने इसको एक सूत्र के माध्यम से बड़े सुन्दर ढंग से समझाया । रावण के अत्याचार से संत्रस्त होने के बाद देवताओं तथा ब्रह्मा ने मिलकर प्रार्थना की । तो अब प्रश्न यह है कि जिनसे प्रार्थना की जा रही है वे भगवान ईश्वर हैं कि मनुष्य हैं ? तो भी ! यह निश्चित बात है कि मनुष्य ईश्वर का आश्रय तभी लेता है जब उसके सामर्थ्य की सीमा समाप्त हो जाती है । तो यह तो स्पष्ट ही दिखाई दे गया कि ईश्वर का आश्रय तभी लिया गया जब मानवीय सामर्थ्य की सीमा समाप्त हो गयी । जब सारी सृष्टि व्याकुल हो गयी, मुनियों को भी लगा कि हम रावण के अत्याचार को समाप्त करने में असमर्थ हैं, जब स्वर्ग के देवताओं तक ने असमर्थता स्वीकार कर ली और यहाँ तक कि ब्रह्मा ने भी कह दिया कि रावण की समस्या का समाधान मेरे पास नहीं है, उस समय गोस्वामीजी एक बहुत बढ़िया बात कहते हैं - याद रखिए अगर श्रीराम को आप दो में से एक मान लीजिएगा तो घाटे में जरूर रहियेगा । केवल ईश्वर मानेंगे तो भी घाटे में रहेंगे और केवल मनुष्य मानेंगे तो भी घाटे में रहेंगे । गोस्वामीजी ने जो समन्वय प्रस्तुत किया, आप उस पर जरा ध्यान दीजिए ।
Wednesday, 23 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
अनेक महापुरूष तथा अनेक ग्रन्थ हैं और सभी किसी न किसी दृष्टि से बड़े विलक्षण हैं । पर अगर रामकथा और रामचरितमानस की दृष्टि से विचार करके देखें तो उनमें एक बड़ा अनोखा सामंजस्य दिखायी देगा । जितने पक्ष हैं, चाहे ज्ञान और भक्ति का पक्ष हो, चाहे कर्म और ज्ञान का पक्ष हो, चाहे पुरुषार्थ और प्रारब्ध का पक्ष हो अथवा नीति और प्रीति का पक्ष हो और चाहे स्वार्थ तथा परमार्थ का पक्ष हो, परन्तु विचार करके देखें तो पूरे रामायण में इन सबका सामंजस्य आपको मिलेगा । गोस्वामीजी कहते हैं - आप पक्षी (पक्षपाती) हैं तो लड़िए मत, आइए रामकथा में बैठ जाइए और फिर देखिए, गोस्वामीजी ने सारे पक्षों का सामंजस्य कितना सुन्दर किया ।
Tuesday, 22 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ......
यह जो श्रीराम की कथा है, इसे कौए ने कहा और हंसों ने सुना, पर गरुड़ जी भी बाद में जब पहुँच गये तो काकभुशुण्डिजी ने गरुड़ जी से बहुत बढ़िया बात कही । उन्होंने पूछा कि आप मेरे पास क्यों आये ? बोले - महाराज ! यह तो मैंने पहले ही बता दिया कि सन्देह के कारण आया । काकभुशुण्डिजी ने कहा - बिल्कुल नहीं आप भगवान को निरन्तर धारण करने वाले हैं, क्या आपको भ्रम हो सकता है ? आप आये नहीं हैं, आपको भगवान ने भेजा है । नहीं महाराज ! मुझसे तो प्रभु ने नहीं कहा । बोले - मैं जानता हूँ । आपके ह्रदय में भगवान थे, उन्होंने भेजा है । क्यों भेजा ? बोले - प्रभु को लगा होगा कि हंस तो रामकथा सुनने लगे पर पक्षियों के राजा तो गरुड़ हैं, जब तक वह कौए से न सुनें तब तक पूरी तरह से भक्ति की महिमा परतिष्ठापित नहीं होगी । इसलिए मोह के बहाने भगवान ने आपको भेजकर वस्तुतः भक्ति का बड़प्पन संसार के सामने सिद्ध किया ।
Monday, 21 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
अन्तिम पक्षी रामायण के काकभुशुण्डिजी हैं । काकभुशुण्डि माने कौआ । गरुड़ जी ने उनसे पूछ लिया - आप कौआ बने थे तब बने थे, पर बाद में आप मनुष्य बन गये होते, और महाराज ! अगर पक्षी ही बनना था हंस बन जाते । काकभुशुण्डि जी ने कहा - बिल्कुल नहीं ! अगर मैं हंस बन जाता तो लोगों के मन में यही भ्रम हो जाता कि केवल हंस का विवेक जो है वही कल्याणकारी है । लेकिन अब जो मुझे, देखेगा वह मुझे देखकर यह समझ लेगा कि जब मैंने हठपूर्वक भक्ति का पक्ष लिया और तब भले महर्षि ने मुझे श्राप दिया - लेकिन फल क्या हुआ - मुनि दुर्लभ बर पायऊँ देखहु भजन प्रताप । - कौए का पंख नहीं कटा और गीधराज का पंख कटा, पर दोनों ही धन्य हुए । जिसका पंख नहीं कटा वह कौए के रूप में अयोध्या में पहुँचकर भगवान के साथ आंगन में खेलने लगा । और जिसका पंख कट गया भगवान उसके पास चलकर स्वयं आ गये तथा उसको गोद में उठा लिया । इसका अभिप्राय है कि हम चाहे उड़कर भगवान के पास पहुँच जायँ या स्वयं वे ही चलकर हमारे पास पहुँच जायँ । चाहे साधना की पराकाष्ठा हो और चाहे कृपा की पराकाष्ठा हो । गोस्वामीजी मानो प्रत्येक पक्षी (प्रत्येक पंथ के व्यक्ति) को आश्वासन देते हैं कि अगर आप चातक, कोकिल, कीर, चकोर तथा मोर हैं तब भी घबराने की आवश्यकता नहीं है । पक्ष का सदुपयोग कीजिए और पक्ष का सदुपयोग यही है कि उस पक्ष को हम भगवान से जोड़ने की चेष्टा करें ।
Sunday, 20 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
अत्यंत निंदनीय माने जाने वाले उस गीध पक्षी के पक्ष का सदुपयोग तब होता है जब रावण जनकनन्दिनी श्रीसीताजी का अपहरण करके ले जाता है और वे जनकनन्दिनी सीताजी का पक्ष लेते हैं । इसका अभिप्राय यह हुआ कि भले ही वे निन्दनीय पक्षी रहे हों, पर जब उन्होंने श्री सीताजी का पक्ष ले लिया, भक्ति का पक्ष ले लिया, तो बड़ी अनोखी बात हो गयी । यद्यपि देखने में तो यह लगा कि बड़ा उल्टा परिणाम हुआ कि अंत में रावण ने उनके पंख काट दिए । रावण का तात्पर्य है कि तूने सीताजी का पक्ष लिया तो तू पक्ष लेने का फल भोग, मैं तेरा पक्ष ही काट देता हूँ । जब पक्ष ही नहीं रहेगा तब तू क्या पक्ष लेगा । लोगों को लगा कि बेचारे पक्षी का पक्ष कट गया । गीधराज से किसी ने पूछा कि आपने पक्ष लेकर अंत में क्या पाया, अंत में तो आपका ही पक्ष कटा । रावण के सामने आप हार ही तो गये । गीध ने कहा कि इससे बढ़कर पक्ष की कोई सार्थकता नहीं है क्योंकि पक्ष जो है वह पक्षी को उड़ने में सहायता देता है । गीधराज ने कहा - जब मेरे पास पक्ष थे, तो मैंने उड़कर सूर्य तक पहुँचने की चेष्टा की, लेकिन मुझे बीच ही से लौटना पड़ा । मैं लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाया । पर अब जब रावण ने मेरा पक्ष काट दिया तो सबसे बढ़िया स्थिति हो गई । क्योंकि गीधराज पंख कट जाने के बाद जब पड़े हुए थे और स्वयं भगवान उनके पास आये तथा उन्होंने गोद में उठा लिया तो गीधराज ने कहा - कितना अन्तर पड़ गया, अगर मेरे पास पक्ष होता तो मुझे प्रभु के पास उड़कर जाना पड़ता, पर जब पंख कट गया तो प्रभु को ही हमारे पास आना पड़ा । इससे बढ़कर पक्ष का सदुपयोग क्या होगा ? मैंने पक्ष खोया नहीं अपितु भगवान ने ही मेरा पक्ष स्वीकार कर लिया है । यही पक्षी की सार्थकता है । तो चातक, कोकिल, कीर, चकोर, मोर ही नहीं, गीध जो अत्यंत निम्न पक्षी माना जाता है, वह भी अपने पक्ष का सदुपयोग कर सकता है, भक्ति से जुड़कर । यही इसका सांकेतिक तात्पर्य है ।
Saturday, 19 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ..........
भगवान श्रीराघवेन्द्र जब जनकजी की वाटिका में जाते हैं तब गोस्वामीजी कहते हैं कि पक्षियों ने भगवान राम का स्वागत किया । और वे सब पक्षी अलग-अलग जाति के थे - चातक, कोकिल, कीर, चकोर और मोर सबने प्रभु का स्वागत किया । लेकिन गोस्वामीजी ने सबका इस रूप में सामंजस्य किया कि चातक, कोकिल, कीर, चकोर, मोर आदि जो पक्षी हैं, वे तो ऊँचे पक्षी माने जाते हैं । गोस्वामीजी से मानो यह प्रश्न किया गया कि महाराज ! भले ही श्रीराम का स्वागत करने के लिए पक्षी आये हों, लेकिन जितने भी पक्षी थे वे सभी अच्छे पक्षी ही तो थे, परन्तु संसार में तो बुरे पक्षी भी होते हैं और तब गोस्वामीजी ने जो अत्यंत निम्न माने जाने वाले सबसे निंदनीय पक्षी गीध तथा कौआ हैं, इन दोनों को भी राम और रामकथा से जोड़ दिया । गीध का रामकथा से जुड़ जाना, इसको यदि सांकेतिक भाषा में कहें तो यों कह सकते हैं कि गीध के पक्ष का सदुपयोग हो गया ।
Friday, 18 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ..........
....... कल से आगे......
अगर हंस यह दावा करे कि मैं निष्पक्ष हूँ तो क्या यह दावा , क्या यह निष्पक्ष है ? क्योंकि यदि दूध और पानी को मिलाकर उसके सामने रख दिया जाय तो दूध और पानी को यदि वह केवल अलग-अलग करके रख देता तब तो निष्पक्ष था, पर जब वह दोनों को अलग करना छोड़कर केवल दूध को पी लेता है और पानी को छोड़ देता है तो वह दूध का पक्षपाती ही तो है । तो भई ! इस संवाद का तात्पर्य यह है कि जब दो पक्षी आपस में मिलते हैं, जब दो विचारधारा के लोग मिलते हैं तो उनके विचारों में टकराहट उत्पन्न होती है, विवाद होता है । और परिणाम यह हो जाता है कि न जाने किस सीमा तक वे एक-दूसरे को कष्ट पहुँचाने की चेष्टा करते हैं । परन्तु रामायण में एक बड़ा सुन्दर संकेत दिया गया कि भाई ! पक्षी रहो तो कोई आपत्ति नहीं, पर गोस्वामीजी कहते हैं कि कौए ने कहा और हंस ने सुना तो इसका अभिप्राय है कि कोई चेष्टा करनी चाहिए कि कौए और हंस में विवाद न होकर संवाद हो और उस संवाद का सूत्र है 'रामकथा' । क्योंकि अलग-अलग पक्ष के व्यक्तियों को मिलाने के लिए कोई माध्यम आप समाज में ढूँढ़ना चाहें, अलग-अलग विचारधारा के व्यक्तियों में सामंजस्य कैसे हो, एकत्व कैसे हो, अपनी-अपनी मान्यताओं में स्थिर रहकर भी हम एक-दूसरे से प्रेम कैसे करें, तो इसका सूत्र यही है । वस्तुतः यह जो रामचरितमानस है, रामकथा है, इसकी विशेषता यही है कि इसमें समस्त पक्षियों (सभी पक्ष के व्यक्तियों) का संवाद है ।
अगर हंस यह दावा करे कि मैं निष्पक्ष हूँ तो क्या यह दावा , क्या यह निष्पक्ष है ? क्योंकि यदि दूध और पानी को मिलाकर उसके सामने रख दिया जाय तो दूध और पानी को यदि वह केवल अलग-अलग करके रख देता तब तो निष्पक्ष था, पर जब वह दोनों को अलग करना छोड़कर केवल दूध को पी लेता है और पानी को छोड़ देता है तो वह दूध का पक्षपाती ही तो है । तो भई ! इस संवाद का तात्पर्य यह है कि जब दो पक्षी आपस में मिलते हैं, जब दो विचारधारा के लोग मिलते हैं तो उनके विचारों में टकराहट उत्पन्न होती है, विवाद होता है । और परिणाम यह हो जाता है कि न जाने किस सीमा तक वे एक-दूसरे को कष्ट पहुँचाने की चेष्टा करते हैं । परन्तु रामायण में एक बड़ा सुन्दर संकेत दिया गया कि भाई ! पक्षी रहो तो कोई आपत्ति नहीं, पर गोस्वामीजी कहते हैं कि कौए ने कहा और हंस ने सुना तो इसका अभिप्राय है कि कोई चेष्टा करनी चाहिए कि कौए और हंस में विवाद न होकर संवाद हो और उस संवाद का सूत्र है 'रामकथा' । क्योंकि अलग-अलग पक्ष के व्यक्तियों को मिलाने के लिए कोई माध्यम आप समाज में ढूँढ़ना चाहें, अलग-अलग विचारधारा के व्यक्तियों में सामंजस्य कैसे हो, एकत्व कैसे हो, अपनी-अपनी मान्यताओं में स्थिर रहकर भी हम एक-दूसरे से प्रेम कैसे करें, तो इसका सूत्र यही है । वस्तुतः यह जो रामचरितमानस है, रामकथा है, इसकी विशेषता यही है कि इसमें समस्त पक्षियों (सभी पक्ष के व्यक्तियों) का संवाद है ।
Thursday, 17 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
रामायण में पक्षी कहकर दो बातों की ओर संकेत किया गया है । एक तो जो आकाश में उड़ने वाला है वह पक्षी है, तथा दूसरे अर्थों में जिसके मन में किसी सिद्धांत के प्रति पक्षपात है, आग्रह है, वह पक्षी है । रामायण में दोनों अर्थ प्रस्तुत किये गये । काकभुशुण्डि जी तो पहले काक थे ही नहीं, वे तो मनुष्य थे, महर्षि लोमश जी ने कौआ होने का शाप दे दिया था और यह कहकर शाप दिया कि तुम मनुष्य होने के योग्य इसलिए नहीं हो क्योकिं मनुष्य को तो विवेकी तथा निष्पक्ष होना चाहिए, पर मैं स्पष्ट देख रहा हूँ कि तुम निष्पक्ष नहीं हो - इसलिए जा तू चाण्डाल पक्षी हो जा । तो उन्होंने जो बात कही, अगर गहराई से उस पर विचार करके देखें तो संसार में जितने व्यक्ति दिखाई दे रहे हैं, भले ही शरीर की दृष्टि से वे मनुष्य दिखाई दे रहे हों पर क्या कोई यह दावा कर सकता है कि मैं पक्षी नहीं हूँ । इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति के मन में देश का पक्षपात है, प्रान्त का पक्षपात है, विचार का पक्षपात है । ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है कि जिसके जीवन में किसी न किसी प्रकार का पक्षपात न हो, और यह पक्षपात जो है वह व्यक्ति की प्रकृति का एक अंग है । इस सन्दर्भ में रामायण में एक बहुत बढ़िया दर्शन दिया गया । प्रतीक यह चुना गया कि पक्षियों में एक पक्षी ऐसा है जो निष्पक्ष है और निष्पक्षता का प्रतीक जो पक्षी माना जाता है, वह हंस है । क्योकिं हंस के बारे में कहा जाता है कि दूध और पानी को अगर मिला कर रख दिया जाय तो वह उन्हें अलग कर देता है । इसी प्रकार हंस के समान हमारा विवेक होना चाहिए जो दूध और पानी को अलग कर दे ।
.......आगे कल .....
.......आगे कल .....
Wednesday, 16 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
श्रीरामचरितमानस की विलक्षणता यह है कि इसमें एक सांकेतिक भाषा का प्रयोग किया गया है । श्रीरामचरितमानस के वैसे तो अनेक श्रोता और वक्ता हैं, पर एक वक्ता और श्रोता के रूप में जो नाम चुना गया है वह बड़ा अनोखा है । वे वक्ता हैं काकभुशुण्डि तथा श्रोता हैं - गरुड़ । भगवान शंकर ने पार्वती जी को अपना संस्मरण सुनाते हुए कहा, पार्वती ! जब सती-शरीर में मेरा तुम्हारा वियोग हो गया तब भ्रमण करते हुए मैं सुमेरु पर्वत पर पहुँचा, वहाँ मैंने एक अनोखा दृश्य यह देखा कि वृक्ष के नीचे एक कौआ बैठा हुआ कथा कह रहा था । वैसे चुनाव भी बड़ा अनोखा किया गया । क्योकिं अगर वक्ता का कण्ठ मधुर हो तो सुनने वालों को बड़ा रस आता है । यदि कोई सुन्दर कण्ठ से पाठ करे तो आनंद आता है । पर व्यंग्य यह है कि पक्षी चुना भी तो कौआ । अगर कोई सबसे कर्कश कण्ठ वाला पक्षी माना जाता है तो कौआ ही है । एक और विचित्र विडम्बना यह है कि पक्षियों में सबसे निम्न कोटि का पक्षी भी कौआ ही माना जाता है और शंकरजी ने जब यह कहा कि कौआ कथा कह रहा था, तो पार्वतीजी ने पूछा कि जब कौआ कथा सुना रहा था तो वहाँ पर सुनने वाले भी कौए ही रहे होंगे ? भगवान शंकर ने कहा - नहीं पार्वती ! यही तो आश्चर्य है । मैंने जब जाकर देखा तो दिखायी यही पड़ा कि जितने हंस थे वे श्रोता बनकर बैठे हुए थे और कौआ कथा सुना रहा था । बड़ी विचित्र-सा भाषा है कि कौआ कथा कहता है, और हंस कथा सुनते हैं । पार्वतीजी को यह भी संदेह था कि जब कौआ बोलता होगा तो अपने ही कर्कश कण्ठ से बोलता होगा । पर शंकरजी ने उत्तर देते हुए एक विशेष शब्द जोड़ दिया । शंकरजी ने कहा - पार्वती ! कौआ बड़े मधुर शब्दों में बोला । कहने का अभिप्राय यह है कि स्वर की मधुरता से यदि अगर रामकथा मधुर लगे तो फिर यह संदेह होना स्वाभाविक है कि उसमें स्वर की कितना मिठास है और रामकथा की मिठास कितनी है ? पर जब कौए के स्वर में भी सुनकर रामकथा मीठी लगे तब मिठास रामकथा की ही है, उसमें और कोई वस्तु मिली हुई नहीं है । शंकरजी ने कहा कि रामकथा का महात्म्य यही है कि वह कौए के कर्कश कण्ठ को भी इतना मधुर बना देती है कि वह सुनने में सुस्वर और अत्यंत मधुर प्रतीत होता है ।
Tuesday, 15 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
...... कल से आगे.....
गोस्वामीजी ने इस सन्दर्भ में बड़ी सुन्दर बात कही है । यद्यपि रामायण को जो अधूरी दृष्टि से पढ़ते हैं वे उसका एक ही पक्ष देखते हैं, पर रामायण का विलक्षण पक्ष यह है कि एक ओर गोस्वामीजी ने बार-बार कहा कि श्रीराम साक्षात ईश्वर हैं । लेकिन उनका सामंजस्य यह है कि ईश्वर के साथ-साथ बार-बार उन्होंने एक शब्द जोड़ दिया कि श्रीराम ईश्वर होते हुए भी नरलीला कर रहे हैं । गोस्वामीजी ने इसका निराकरण करने के लिए दो सुन्दर शब्द चुने । एक शब्द है - रामचरितमानस । रामचरितमानस का अर्थ है कि श्री राम के चरित्र का वर्णन जिस ग्रन्थ से किया गया वह ग्रन्थ है रामचरितमानस । लगता है कि इस ग्रन्थ में चरित्र की प्रधानता है । पर रामायण में गोस्वामीजी ने एक अन्य शब्द का भी प्रयोग किया है । शंकरजी जब रामायण के एक प्रसंग में इसका नाम लेते हैं तब तो कहते हैं कि यह रामचरितमानस है, श्रीराम के चरित्र का वर्णन है, पर दूसरे प्रसंग में जब वे पार्वती जी को कथा सुनाने लगे तो यह नहीं कहा कि श्रीराम का चरित्र सुनो, उन्होंने कहा - गिरिजा ! श्रीराम की लीला सुनो । तो भई ! प्रश्न यह है कि यह लीला है कि चरित्र है ? गोस्वामीजी ने इसका बड़ा सुन्दर सामंजस्य करते हुए कहा कि जब मनुष्य के रूप में देखिए तो चरित्र देखिए और जब ईश्वर के रूप में देखिए तो लीला देखिए ।
गोस्वामीजी ने इस सन्दर्भ में बड़ी सुन्दर बात कही है । यद्यपि रामायण को जो अधूरी दृष्टि से पढ़ते हैं वे उसका एक ही पक्ष देखते हैं, पर रामायण का विलक्षण पक्ष यह है कि एक ओर गोस्वामीजी ने बार-बार कहा कि श्रीराम साक्षात ईश्वर हैं । लेकिन उनका सामंजस्य यह है कि ईश्वर के साथ-साथ बार-बार उन्होंने एक शब्द जोड़ दिया कि श्रीराम ईश्वर होते हुए भी नरलीला कर रहे हैं । गोस्वामीजी ने इसका निराकरण करने के लिए दो सुन्दर शब्द चुने । एक शब्द है - रामचरितमानस । रामचरितमानस का अर्थ है कि श्री राम के चरित्र का वर्णन जिस ग्रन्थ से किया गया वह ग्रन्थ है रामचरितमानस । लगता है कि इस ग्रन्थ में चरित्र की प्रधानता है । पर रामायण में गोस्वामीजी ने एक अन्य शब्द का भी प्रयोग किया है । शंकरजी जब रामायण के एक प्रसंग में इसका नाम लेते हैं तब तो कहते हैं कि यह रामचरितमानस है, श्रीराम के चरित्र का वर्णन है, पर दूसरे प्रसंग में जब वे पार्वती जी को कथा सुनाने लगे तो यह नहीं कहा कि श्रीराम का चरित्र सुनो, उन्होंने कहा - गिरिजा ! श्रीराम की लीला सुनो । तो भई ! प्रश्न यह है कि यह लीला है कि चरित्र है ? गोस्वामीजी ने इसका बड़ा सुन्दर सामंजस्य करते हुए कहा कि जब मनुष्य के रूप में देखिए तो चरित्र देखिए और जब ईश्वर के रूप में देखिए तो लीला देखिए ।
Monday, 14 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
सबसे पहले एक बड़े महत्व का प्रश्न यह है कि भगवान राम मनुष्य हैं या साक्षात ईश्वर ? श्रीराम के विषय में दोनों बातें प्रचलित हैं । कुछ लोगों का आग्रह है कि श्रीराम मनुष्य हैं, महापुरुष हैं, बड़े श्रेष्ठ चरित्र वाले हैं और वे बड़े दावे से कहते हैं कि देवर्षि नारद से महर्षि वाल्मीकि जी ने जो प्रश्न पूछा वह यही तो था कि इस समय संसार में सबसे गुणवान व्यक्ति कौन है ? और तब महर्षि वाल्मीकि के समक्ष देवर्षि नारद ने श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया था । इसका तात्पर्य है कि श्रीराम महामानव हैं और उनमें विशिष्ट गुण हैं, इसलिए हम उनकी पूजा करते हैं । और दूसरे पक्ष का आग्रह है कि श्रीराम साक्षात ईश्वर हैं, अनन्तकोटि ब्रह्मांड के नायक हैं । इस संदर्भ में श्रीरामचरितमानस की क्या मान्यता है, आप जरा इस पर भी एक दृष्टि डालें ।
.......आगे कल .....
.......आगे कल .....
Sunday, 13 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ......
आपने महात्माओं से सुना होगा, तथा शास्त्रों में यह तो अध्ययन किया ही होगा कि जीवन का चरम लक्ष्य ईश्वर को पाना है । ईश्वर के पास पहुँच जाना ही व्यक्ति की चरम उपलब्धि है । पर यहाँ, जो जीवन का चरम लक्ष्य है (ईश्वर), उसने महर्षि भरद्वाज के चरणों में प्रणाम करके कहा कि आप मुझे यह बताइए कि मैं किस मार्ग से जाऊँ ? इस प्रकार ये सारे प्रश्न पढ़कर तो यही लगता है कि वे चाहे केवट से वार्तालाप कर रहे हों और चाहे महर्षि भरद्वाज से, परन्तु उनके संबंध में जो मान्यताएँ प्रचलित है उस समय वे उनसे बिल्कुल भिन्न व्यवहार कर रहे हैं, मानो लक्ष्य ही मार्ग के विषय में महर्षि भरद्वाज से जिज्ञासा प्रकट कर रहा है । जो पार करने वाला है वह स्वयं पार होने के लिए गंगा के किनारे खड़ा है । भगवान राम की इस जिज्ञासा का तात्पर्य क्या है ?
Saturday, 12 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
जब भगवान श्रीराम अयोध्या से यात्रा करते हैं तब सबसे पहले भगवान राम का मिलन केवट से होता है और इसके पश्चात यात्रा करते हुए भगवान श्रीराघवेन्द्र तीर्थराज प्रयाग में महर्षि भरद्वाज के आश्रम में पहुँचते हैं । वहाँ रात्रि विश्राम करते हैं । प्रातःकाल त्रिवेणी में स्नान करने के पश्चात भगवान श्रीराघवेन्द्र महर्षि भरद्वाज के चरणों में प्रणाम करते हैं और उसके पश्चात श्रीराघवेन्द्र ने महर्षि से जो प्रश्न किया वह बड़ा ही अनोखा है, अद्भुत है । लगता है भगवान राम का (ईश्वर) का सारा व्यवहार बदला हुआ है । उसका श्रीगणेश केवट के प्रसंग से ही प्रारंभ हो गया था । जब भगवान श्रीराघवेन्द्र ने केवट से यह कहा कि केवट ! तुम मुझे पार उतार दो, तो वह भी एक नयी बात थी । क्योंकि भगवान की घोषणा तो यह है कि संसार-सागर में जो व्यक्ति डूब रहे हैं या संसार-सागर में जो पार उतरना चाहते हैं, मैं उन्हें पार उतारने वाला हूँ । लेकिन गंगा के किनारे कुछ उल्टी-सी बात करने लगे । संसार-सागर से पार करने वाला ईश्वर जब केवट से यह कहने लगता है कि मुझे पार उतार दो, तो सुनकर अविश्वास-सा होता है कि क्या यही ईश्वर की वाणी है ? और इसी प्रकार से महर्षि भरद्वाज से जब वे प्रश्न करते हैं तो भी ईश्वर का बदला हुआ रूप हमारे सामने आता है । वस्तुतः महर्षि भरद्वाज के चरणों में प्रणाम करने के पश्चात भगवान राम ने जो प्रश्न किया वह क्या है ?
....आगे कल से....
आज एक नये प्रसंग का प्रारंभ है, जिसका अमृत लाभ हम सबको आने वाले दिनों में नित्य प्राप्त होगा । परम पूज्य गुरुदेव भगवान से यही प्रार्थना है कि हम सबके जीवन में सत्संग की यह निरंतरता बनी रहे । जय सियाराम ।
....आगे कल से....
आज एक नये प्रसंग का प्रारंभ है, जिसका अमृत लाभ हम सबको आने वाले दिनों में नित्य प्राप्त होगा । परम पूज्य गुरुदेव भगवान से यही प्रार्थना है कि हम सबके जीवन में सत्संग की यह निरंतरता बनी रहे । जय सियाराम ।
Friday, 11 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
हनुमानजी संजीवनी बूटी लेने गये पर वे दवा को पहचान नहीं पाए । तब पूरा पर्वत ही उठाकर चल पड़े । मार्ग में उनका मिलन अयोध्या में श्रीभरत से होता है । प्रभु ने हनुमानजी से पूछा - हनुमान, तुम्हारा अयोध्या जाने का विचार कैसे हुआ ? उन्होंने कहा - महाराज ! मेरा विचार थोड़े ही हुआ, वह तो आपने मुझे भेज दिया । क्यों ? आपने जब देखा कि लक्ष्मण तो अस्वस्थ हैं ही और उनकी दवा लाने वाला स्वयं बीमार हो रहा है । उसकी भी चिकित्सा कराने के लिए किसी-न-किसी के पास तो भेजना ही चाहिए । तो आपने मुझे चिकित्सा के लिए भरतजी के पास भेज दिया था । भगवान राम और भरतजी की भूमिका तो आप जानते ही हैं । भगवान राम ईश्वर हैं और श्रीभरत मूर्तिमान प्रेम । हनुमानजी जब गये तो भगवान को प्रणाम करके गये थे - भगवान श्रीराम के चरणों को ह्रदय में रखकर गए थे । पर जब अयोध्या से लौटने लगे तो उन्होंने कुछ बदल दिया । तब उन्होंने भगवान के चरणों में प्रणाम नहीं किया, श्रीभरत के चरणों में प्रणाम किया । प्रभु ने पूछ लिया - क्या अयोध्या जाकर तुमने मन्त्र बदल दिया ? इष्ट बदल लिया ? मेरे चरण भूल गए ? हनुमानजी ने कहा - प्रभो ! मुझे आपके स्थान पर श्रीभरत के चरणों का आश्रय इसलिए लेना पड़ा कि जब मैं आपके चरणों का आश्रय लेकर चला तो अहंकार की छाया आ गयी थी और वह छाया श्रीभरत की भुजाओं की कृपा से मिटी । इसलिए मैं समझता हूँ कि आपके चरणों की अपेक्षा भरतजी की भुजाएँ कहीं अधिक समर्थ हैं । अभिप्राय यह है कि ईश्वर का आश्रय लेने के बाद भी बुराई पूरी तौर से तब तक नहीं मिटेगी, जब तक हम प्रेम का आश्रय नहीं लेंगे । भगवतप्रेम की परिपूर्णता जब जीवन में आती है तब मानसिक दोषों का निराकरण अपने आप हो जाता है ।
Thursday, 10 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
लक्ष्मणजी के समान प्रबुद्ध कौन हो सकता है - जब समस्त भोग-विलासों से वैराग्य हो जाय तभी जानना चाहिए कि जीव जाग गया है । लक्ष्मणजी तो नित्य जाग्रत, सदा प्रबुद्ध वैराग्य के प्रतीक हैं । पर आज एक क्षण के लिए जैसे उन्हें झपकी-सी आ गयी थी । जब मेघनाद आक्रमण करने आया, तो बन्दरों ने लक्ष्मणजी को पुकारा और तब लक्ष्मणजी धनुष-बाण हाथ में लेकर क्रुद्ध हो चल पड़े । महान प्रबुद्ध साधक, जो काम का विजेता है, वैराग्यवान है, वह काम से लड़ने चल पड़ा । लेकिन क्षण भर के लिए जैसे ईश्वर विस्मृत हो गया, ईश्वर से जैसे एकत्व होना चाहिए, वह एक क्षण के लिए छूट गया । और तब वैराग्य मूर्छित हो गया । मेघनाद के बाण से लक्ष्मण मूर्छित हो गए । पर हनुमानजी ने तुरन्त उन्हें उठा लिया और प्रभु की गोद में सुला दिया । इसका अभिप्राय क्या है ? गोस्वामीजी हनुमानजी के लिए वैराग्य के साथ एक शब्द और जोड़ देते हैं - हनुमानजी प्रबल वैराग्य हैं । भगवान राम की दृष्टि हनुमानजी की ओर गई । वैराग्य मूर्छित हो गया तो उसे चैतन्य करने का कार्य प्रबल वैराग्य को सौंपा गया ! भगवान का संकेत यह था कि काम के प्रहार से लक्ष्मण मूर्छित हैं तो उसकी दवा प्रबल वैराग्य हनुमानजी ले आवें ।
Wednesday, 9 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
लंका में भगवान राम के सामने जो संकट आया, श्रीलक्ष्मण जी बीमार पड़ गए, वहाँ पर भी सन्दर्भ वही है - काम का आक्रमण हुआ है वैराग्य पर । मेघनाद ने लक्ष्मणजी पर आक्रमण किया । लक्ष्मणजी ने मेघनाद को बार-बार पराजित किया था । पर पराजित होने के बाद भी वह अपनी पराजय स्वीकार नहीं करता । तात्पर्य यह है कि वैराग्य के द्वारा आप काम को हराने की चेष्टा कीजिए, पर काम इतनी जल्दी हार नहीं मानता । एक बार तो ऐसी स्थिति आ गयी कि लक्ष्मणजी के प्रहार से मेघनाद को लगा कि वह मरा, और तब उसने अपने अन्तिम शस्त्र का प्रयोग किया । लक्ष्मणजी पर ऐसी शक्ति का प्रयोग किया, जो अमोघ थी । लक्ष्मणजी मूर्छित हो गए । भगवान राम ने लक्ष्मणजी से पूछा - लक्ष्मण ! मूर्छा से तुमने क्या अर्थ लिया ? तुम मेघनाद के बाण से मूर्छित हो गए, इससे बढ़कर कोई आश्चर्य नहीं । लक्ष्मणजी ने भगवान के चरणों में प्रणाम करके कहा - प्रभो ! इससे तो मुझे सबसे बड़ी शिक्षा मिली । क्या ? मैं जीवन भर जागता रहा, कभी सोया नहीं कि कहीं कोई बुराई मुझ पर आक्रमण न कर दे । पर पता चल गया कि बिना आपकी गोद में सोए, केवल अपने जागने से बुराइयों से पूरी तरह बचना सम्भव नहीं है ।
Tuesday, 8 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
श्रीभरत, स्वयं उनके मन में कोई रोग नहीं है, पर सजग इतने हैं कि गोस्वामीजी ने लिखा - "तप तनु कसहीं" - इस शब्द पर जरा ध्यान दीजिए । इसका अर्थ क्या है ? जब आप किसी सर्राफ के यहाँ सोना लेकर जाते हैं, तो वह सोने को कसौटी पर कसकर देखता है । लेकिन वह एक बार ही तो देखता है । यह तो नहीं कि वह सोने को हर घण्टे निकालकर बार-बार रगड़े । अगर कोई दिन-रात देखता ही रहे, तब तो कोई ग्राहक उसके पास नहीं आएगा । वह तो बस एक बार देखेगा और कह देगा कि सोना खरा है या खोटा । पर गोस्वामीजी एक बहुत बड़ी बात कहते हैं - इस सोने को चाहें तो आप एक ही बार कसौटी पर कसें, पर मन के सोने को जीवन भर कसौटी पर कसते रहिए । कभी मत विश्वास कीजिए कि अब मेरा मन खरा हो गया, अब कभी खोटा नहीं होगा । इसलिए श्रीभरत जैसे महापुरुष भी चौदह वर्षों तक एक ही कार्य करते रहे - अपने शरीर को कसकर देखते रहते हैं कि कहीं भोग की वृत्ति तो नहीं आ गई, कहीं लालसा या अधिकार की वृत्ति तो नहीं आ गई ? जब श्रीभरत अपने चरित्र का ऐसा अद्भुत शोधन करते हैं, तो परिणाम क्या होता है ? जब भरतजी जैसे व्यक्ति, जिनका चरित्र इतना निष्कलुष है, प्रतिक्षण मानसिक बुराइयों की ओर से इतने सावधान हैं, तो उनकी प्रजा-सेवा का परिणाम यह होता है कि प्रजा की बुद्धि शुद्ध हो जाती है । प्रजा मात्र का अन्तःकरण पवित्र हो जाता है, सबके मन के रोग दूर हो जाते हैं ।
Monday, 7 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
भगवान राम ने पादुकाएँ देते हुए जब श्रीभरत की ओर देखा और पूछा - मिल गया आधार ? तो श्रीभरत ने तुरन्त कहा - महाराज, मैं आपको लौटाने आया था और समझ गया कि आप मेरे साथ लौट रहे हैं । इन दोनों रूपों में आप ही मेरे साथ चल रहे हैं । जो यह भेद करते हैं कि यहाँ ईश्वर आधा है, यहाँ चौथाई है - कई लोग कहा करते हैं कि मनुष्य में ईश्वर का अंश अधिक और पशुओं में कम है - उनका गणित तो अनोखा ही है । श्रीभरत का गणित क्या है ? ईश्वर जितना पूर्ण श्रीराम में है, उतना उनकी पादुकाओं में भी है । कितनी परिपूर्ण दृष्टि है उनकी । इसी दिव्य परिपूर्ण दृष्टि के कारण उन्हें उन पादुकाओं में श्रीराम और श्रीसीता की प्रत्यक्ष अनुभूति हो रही है, उन्हें यही अनुभव हो रहा है कि श्रीराम परिपूर्ण रूप से उनके साथ अयोध्या लौट आए हैं । और इसलिए जब वे सिंहासन पर उन्हें बिठाते हैं तो लोगों को आश्चर्य होता है कि जहाँ पर प्रभु को बिठाना चाहिए वहाँ पर पादुकाओं को रख दिया । पर श्रीभरत की भावना क्या है ? श्रीभरत को अगर खड़ाऊँ दिखाई दे रहा हो, तब तो सिंहासन पर नहीं बिठाते, पर जब उन्हें साक्षात भगवान और श्रीसीता ही दिखाई दे रहे हैं तो उन्होंने सिंहासन पर पादुका नहीं, भगवान और श्रीसीताजी को बिठाया है । और उन्हें बिठाकर राजकाज चला रहे हैं । राजा कौन है ? भगवान श्रीराम और श्रीसीताजी । श्रीभरत नित्य प्रभु की पादुकाओं का पूजन करते हैं और उनसे आज्ञा लेकर राज्य का संचालन करते हैं । पादुकाओं की पूजा करने का तात्पर्य यही है कि वे नित्य भगवान राम से पूछते हैं कि महाराज ! राज्य आपका है, सिंहासन पर आप बैठते हैं, बताइए अयोध्या का राज्य कैसे चलावें ? भरतजी ने, न तो कभी अपने में स्वामित्व की अहंता स्वीकार की और न ही राज्य की ममता ।
Sunday, 6 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
भगवान श्रीराघवेन्द्र पादुकाएँ देते हुए भरतजी से बोले - भरत ! मिल गया आधार ? श्रीभरत आनन्दविभोर थे ; बोले - हाँ प्रभु ! मिल गया । जिसकी ओर भी दृष्टि पड़ी, सबने कहा - मिल गया । अलग-अलग प्रकार के लोग हैं । कोई नाम-जप करनेवाले, कोई सेवावृत्ति वाले, तो कोई कुल की मर्यादा का पालन करनेवाले - सबको इस प्रतीक से आश्रय मिल गया । क्या आश्रय मिल गया ? भगवान राम की ये दो पादुकाएँ प्रजा के प्राणों की रक्षा करने के लिए मानो दो पहरेदार हैं । और ज्ञानी के लिए ? महाराज जनक तो महान ज्ञानी थे । भगवान राम की दृष्टि उनकी ओर गई ; आपको कैसा लगा ? जनकजी बोले - मुझे तो लग रहा है मानो यह पादुका नहीं, भरतजी के प्रेमरत्न को रखने के लिए स्वर्ण मंजूषा दी गयी है । जो राम-नाम के जप करने वाले थे, उन्हें लगा कि ये रा और म दो अक्षर हैं । माताओं को लगा कि यह 'कुलकपाट' कुल की लज्जा बचाने वाले किवाड़ हैं । जो सेवा करने वाले हैं, उनको लगा - ये सेवाधर्म के दो निर्मल नेत्र हैं । सबको कुछ न कुछ मिला ।
Saturday, 5 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
भगवान श्रीराम ने जो पादुकाएँ श्रीभरत को दीं, उसे लाया कौन था ? यह भगवान राम के साथ तो थीं नहीं । वे तो जूते और पादुकाएँ छोड़कर ही आए थे । कैकेयीजी की यह आज्ञा थी । तो यह आई कहाँ से ? यह श्रीभरत ही लाए थे । क्यों लाए थे ? भगवान राम के राज्याभिषेक के लिए वे सारी सामग्री लाए थे, उसमें छत्र, सिंहासन, चामर, तीर्थों के जल और राजा के चरणों में जो पादुका धारण कराई जाती है, वह पादुका भी श्रीभरत ही लेकर आए थे । जब भरतजी ने कहा कि महाराज ! कोई सहारा दीजिए, तो प्रभु ने मुस्कराकर उन्हीं की लाई हुई पादुकाओं को उठाकर उन्हें दे दिया । मानो भगवान का संकेत यह था कि भरत ! यह जो सहारा मैं तुम्हें दे रहा हूँ, यह तो तुम्हारा ही लाया हुआ है, तुम्हारा ही दिया हुआ है । सन्त आश्रय लेता है या मैं आश्रय देता हूँ । सन्त ईश्वर से कहता है कोई आश्रय दीजिए और ईश्वर कहते हैं - मेरे पास जो भी है सब तो भक्तों का ही दिया हुआ है । अगर मैं कुछ दूँगा, अपनी खड़ाऊँ दूँगा तो वह भी मेरी अपनी नहीं है, वह भी तो तुम्हारी दी हुई है । भक्त जो मुझे भेंट करता है, वह तो मैं उसे देता हूँ ।
Friday, 4 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
चित्रकूट यात्रा में श्रीभरत सारी सवारियों के होते हुए भी वे स्वयं पैदल चलते हैं । प्रबन्ध सबके लिए कर दिया, पर स्वयं पैदल चले । किसी ने उनसे पूछ लिया कि पैदल चलने का क्या अर्थ है ? उन्होंने कहा कि जिनके पास साधन की सम्पत्ति है, वे सवारी पर चलें, पर जो बेचारा निःसाधन है, जिसके पास रथ, घोड़ा, हाथी, पालकी आदि नहीं है, वह तो पैदल ही चलेगा । हम तो निःसाधन हैं और निःसाधन इस तरह से कि ज्ञान कोटि के साधक से लेकर जो बिल्कुल साधनहीन हैं, उन सबको हमें ईश्वर के सम्मुख ले जाना है - यही श्रीभरत की विशेषता है । और इसलिए सबको लेकर चित्रकूट पहुँचने पर वे भगवान श्रीराम से कहते हैं - महाराज ! सब निराधार नहीं रह सकते । भगवान ने कहा - भरत ! तुम तो निराधार रह सकते हो । उन्होंने कहा - नहीं महाराज ! मुझे तो आधार अवश्य चाहिए । श्रीभरत कहते हैं - महाराज ! बिना आधार के मन को सन्तोष और शान्ति नहीं मिलेगी । श्रीभरत का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के मन को कोई न कोई आश्रय चाहिए, मन की शान्ति के लिए कोई न कोई उपाय चाहिए । श्रीभरत के शब्दों से प्रभु प्रसन्न हो गए और उन्होंने अपनी पादुकाएँ श्रीभरत को दे दीं और श्रीभरत सबकी भावनाओं को तृप्त करते हुए पादुकाएँ स्वीकार करते हैं और उन्हें अपने मस्तक पर रखते हैं ।
Thursday, 3 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
श्रीभरत में सभी भावों की परिपूर्णता है । समस्त लोगों को साथ लेकर चित्रकूट जाने का तात्पर्य भी यही है । जो घोड़े पर बैठकर गये वे योगी थे और जो हाथी पर बैठकर गये वे ज्ञानी । इसे आप भौतिक अर्थों में न लें । इसका अभिप्राय यह है कि घोड़े पर जानेवाला व्यक्ति वह है जो घोड़े की चंचलता पर नियंत्रण स्थापित कर सके । घोड़े की लगाम कस कर पकड़े हुए हो । ईश्वर को पाने की जो साधना योगी की है, वह घोड़े पर सवार उस व्यक्ति की तरह है, जो मन के घोड़े पर बैठा हुआ है और उस पर ध्यान, धारणा, प्रत्याहार, समाधि का लगाम लगाए कसकर पकड़े हुए ईश्वर की दिशा में चल रहा है । हाथी विचार का प्रतीक है । विचार पर आरूढ़ होकर, विचार का आश्रय लेकर जो चल रहा है, वह ज्ञानी है । जो रथ पर बैठे हैं ; रामायण में रथ को धर्म का प्रतीक माना गया है । जो व्यक्ति विविध प्रकार के सत्कर्म करने वाले हैं, वे धर्म के रथ पर बैठकर ईश्वर की ओर बढ़ रहे हैं । और जो भक्त हैं, वे पालकी पर बैठकर जा रहे हैं । पालकी बड़ी आरामदेह सवारी है । ढोए कोई दूसरा और यात्रा पूरी हो किसी अन्य की । चलना किसी को पड़ता है और यात्रा किसी और की पूरी होती है । श्रीभरत ने इस यात्रा में सबके लिए - जो जिसका अधिकारी है, उसके लिए वैसा ही - प्रबन्ध कर दिया है, क्योंकि उनके पास सब हैं - वे ज्ञानी भी हैं, योगी भी हैं, भक्त भी हैं और धार्मिक भी ।
Wednesday, 2 November 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
निर्गुण और सगुण उपासना का एक मुख्य भेद है । निर्गुण उपासना में आधार की अपेक्षा नहीं है । निरालम्ब भाव से व्यक्ति को ऊपर उठने की प्रेरणा दी जाती है । यह अपने स्थान पर, जो इसके अधिकारी हैं, उनके लिए बड़े महत्व की बात है । निरालम्ब भाव से भी लोग उठ सकते हैं । हनुमानजी जैसे आकाशमार्ग से समुद्र को पार कर रहे हैं, हनुमानजी तो हर तरह से चल सकते हैं, जल पर भी, नभ पर भी, थल पर भी । इसका अभिप्राय यह है कि हनुमानजी तो ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग, कर्ममार्ग - सभी मार्गों से चलने के अभ्यस्त हैं । सर्वत्र उनकी पूर्णता है । निर्गुण-निराकार में कोई अवलम्बन नहीं है । न तो नाम है, न रूप और न गुण । व्यक्ति को बिल्कुल निरालम्ब भाव से अपने को ऊपर उठाना है । लेकिन सगुण-साकार की उपासना में मान्यता यह है कि व्यक्ति जीवन में बिना आधार के नहीं रह सकता । मान लीजिए कोई अधिक आधार लेने लगे तो यह आलोचना की जा सकती है कि बहुत आधार ले रहा है, लेकिन जो सब आधार छोड़ देता है, उसको भी तो आखिर पृथ्वी के आधार पर ही तो खड़ा होना पड़ता है । अगर कोई दूसरे के कन्धे का सहारा न ले, लाठी का सहारा न ले तो कम-से-कम पृथ्वी का सहारा ले लेना ही पड़ता है । कोई आधार तो चाहिए ही । वैसे श्रीभरत में सभी भावों की परिपूर्णता है ।
Tuesday, 1 November 2016
युग तुलसी श्रीरामकिंकर उवाच ........
एक व्यक्ति के रूप में भगवान की सेवा करना उतना कठिन नहीं है, जितना सारे संसार में भेदों के होते हुए भी सब रूपों में भगवान को देख लेना और सबकी सेवा करना । यह इतना कठिन कार्य है कि इनका निर्वाह केवल दो पात्रों ने किया, या तो हनुमानजी ने या श्रीभरत ने । यह अभेद अनन्यता इन्हीं दोनों में है । इनकी दृष्टि में श्रीराम में ही श्रीराम नहीं हैं, वे तो जिससे मिलते हैं, जिसको देखते हैं, उसी को प्रणाम करते हैं । सर्वत्र उन्हें श्रीराम का ही दर्शन होता है । और इस दर्शन से क्या होता है ? श्रीभरत तो न ममता को स्वीकार करते हैं न अहंता को । भगवान राम कहते हैं - भरत, मेरा तो ऐसा विश्वास है कि जैसा सुन्दर राज्य तुम चला सकते हो, वैसा कोई दूसरा नहीं चला पाएगा । भगवान की इस बात को श्रीभरत अस्वीकार नहीं करते । गुरु वसिष्ठ और अयोध्यावासी तो यह समझ रहे थे कि भरत भगवान राम से लौटने का हठ करेंगे । पर श्रीभरत ने ऐसा नहीं किया । उन्होंने भगवान से कहा - बिना आधार के मन में न सन्तोष है और न शान्ति । मुझे कुछ आधार दीजिए । वे भगवान श्रीराम से कहते हैं - महाराज ! सब निराधार नहीं रह सकते । भगवान ने कहा - भरत ! तुम तो निराधार रह ही सकते हो । उन्होंने कहा - नहीं महाराज ! मुझे तो आधार अवश्य ही चाहिए । श्रीभरत में दोनों प्रकार की निष्ठा है । वे भगवान को सर्वव्यापी देखकर निर्गुण-निराकार भी स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर आधार और प्रतीक को महत्व देकर सगुण-साकार की निष्ठा का भी पालन करते हैं । यह प्रतीक, जिसकी हम मन्दिर में आराधना करते हैं, यह आधार है । इस आधार से हमारे अन्तर्मन को सहायता मिलती है ।
Monday, 31 October 2016
ययुग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
रामचरितमानस में भगवान राम ने हनुमानजी से कहा - तुम मुझे लक्ष्मण से दुगुने प्रिय हो । यद्यपि हनुमानजी ने उसे उस अर्थ में नहीं लिया कि मैं लक्ष्मणजी दुगुना श्रेष्ठ हूँ, परन्तु दूसरी दृष्टि से विचार करके देखें तो हनुमानजी का स्थान श्रेष्ठ है । कैसे ? रामायण में दोनों अनन्य भक्त हैं, हनुमानजी और लक्ष्मणजी । पर दोनों की अनन्यता में भेद है । हमारे भक्ति ग्रन्थों में अनन्यता की दो प्रकार से व्याख्या की गयी है - एक भेदमूलक अनन्यता और दूसरी अभेदमूलक अनन्यता । भेदमूलक अनन्यता के प्रतीक लक्ष्मणजी हैं । विनयपत्रिका में गोस्वामीजी कहते हैं - लक्ष्मणजी रामरुपी श्यामघन के चतुर चातक हैं । श्रीराम को छोड़ किसी पर भी उनकी आस्था नहीं है । पर रामायण में अनन्यता का दूसरा रूप भी बताया गया है और वह है अद्वैतमूलक अनन्यता । इस अनन्यता का उपदेश भगवान राम ने हनुमान को दिया । हनुमानजी ने कहा - महाराज ! मैं तो जानता ही नहीं कि भजन कैसे करना चाहिए । सुनकर भगवान राम बोले - अगर तुम मेरा भजन करना चाहते हो तो तुम्हें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए -
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रुप स्वामि भगवंत ।।
- मैं सेवक हूँ और सारा ब्रह्मांड ही मेरे प्रभु का रूप है, ऐसा समझ कर अपने ही प्रभु को सर्वत्र देखना, यह मेरी अनन्य भक्ति है । हनुमानजी और लक्ष्मणजी में अन्तर यही है कि लक्ष्मणजी भगवान में ही भगवान की सेवा कर सकते हैं, अन्यत्र नहीं । और हनुमानजी को भगवान ने बताया कि तुम्हारी अनन्यता यह है कि सारे संसार में मुझे देखकर सबकी सेवा करना ।
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रुप स्वामि भगवंत ।।
- मैं सेवक हूँ और सारा ब्रह्मांड ही मेरे प्रभु का रूप है, ऐसा समझ कर अपने ही प्रभु को सर्वत्र देखना, यह मेरी अनन्य भक्ति है । हनुमानजी और लक्ष्मणजी में अन्तर यही है कि लक्ष्मणजी भगवान में ही भगवान की सेवा कर सकते हैं, अन्यत्र नहीं । और हनुमानजी को भगवान ने बताया कि तुम्हारी अनन्यता यह है कि सारे संसार में मुझे देखकर सबकी सेवा करना ।
Sunday, 30 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
गुरु वसिष्ठ और श्रीभरत के दर्शन में बड़ा अन्तर है । गुरु वसिष्ठ कहते हैं - पिता ने तुम्हें राज्य दिया है, तुम राज्य लेने के बाद अगर इसे नहीं रखना चाहते, तो तुम्हें अधिकार है कि तुम इसे किसी दूसरे को दे सकते हो । अभी तुम राज्य ले लो और चौदह बरस बाद जब राम आएँ, तब उन्हें दे देना । पर श्रीभरत ने क्रम को उलट दिया । मानवीय दृष्टि से व्यक्ति में ऐसी दुर्बलता आती है कि एक बार राज्य भोग कर लेने के बाद उसे लौटा देने की स्थिति आए, तो हो सकता है कि व्यक्ति उसमें उलझ जाए । लेकिन भरतजी तो इस दुर्बलता से न केवल मुक्त हैं, बल्कि वे इससे भी बहुत उन्नत हैं । वह इस प्रकार कि जैसे कोई पहले कीचड़ लगा ले और फिर उसे धोए । श्रीभरत का अभिप्राय यह है कि पहले मैं अपने आपको राज्य का स्वामी मानूँ और अपने को स्वामी मान कर राज्य दूसरे को दूँ ? अगर भोगवृत्ति आ जाय तो मैं राज्य न दूँ, और भोगवृत्ति न आए तो राज्य दे दूँ ? तो देने के पश्चात मेरे अन्तःकरण में देने - दान करने - का गर्व होगा या नहीं ? क्या मेरे अन्तःकरण में यह वृत्ति नहीं आएगी कि मैंने इतना बड़ा राज्य राम को दे दिया ? यदि मैं भी अभी राज्य ग्रहण करुँ तो ममताग्रस्त होऊँगा और बाद में जब राज्य दूँगा तो अहंताग्रस्त होऊँगा । तो ऐसी परिस्थिति में सबसे अच्छा यह है कि अहंता और ममता, दोनों को प्रभु के चरणों में अर्पित कर दें और इसीलिए उन्होंने अहंता और ममता को सचमुच चित्रकूट में श्रीराम के चरणों में अर्पित कर दिया । और चित्रकूट से वे क्या लेकर लौटे ? वही, जिससे न अहंता रहे और न ममता । भगवान राम ने कह दिया - भरत, तुम्हें तो लौटकर राज्य चलाना है, प्रजा की, समाज की सेवा करनी है ।
Saturday, 29 October 2016
ययुग तुउसी श्री रामकिंकर उवाच ......
चित्रकूट का लक्षण क्या है ? जब श्रीभरत सारे समाज को लेकर चित्रकूट पहुँचे, तब सारे लोग अन्तः और बाह्य रोगों से ग्रस्त हैं । वे सब चित्रकूट पहुँचकर क्या देखते हैं ? गोस्वामीजी कहते हैं - अन्न के अभाव में भयभीत और दुखी, त्रिविध तापों से त्रस्त, क्रूर ग्रहों तथा महामारी से पीड़ित प्रजा जैसे किसी उत्तम देश और उत्तम राज्य में जाकर सुखी हो जाती है, श्रीभरत चित्रकूट पहुँचकर वैसे ही प्रसन्न हो जाते हैं । और वहाँ श्रीराम के निवास से वन की सम्पदा ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे अच्छे राजा को पाकर प्रजा सुखी हो जाती है । सुहावना वन ही पवित्र देश है, विवेक उसका राजा और वैराग्य मन्त्री है । ये ही चित्रकूट के लक्षण हैं । सद्गुण जहाँ सैनिक हैं और सुमति तथा शान्ति जहाँ की रानियाँ हैं । और यह चित्रकूट का राज्य बना कब ? सद्गुण के सिपाही जीवन में कब आए ? - मोहरुपी राजा को सेना सहित जीतकर विवेकरुपी राजा निष्कण्टक राज्य कर रहा है । उसके नगर में सुख, सम्पत्ति और सुकाल है । जहाँ पर मोह की पराजय हो चुकी है । श्रीभरत ने अयोध्या के लोगों को दिखा दिया कि जब तक सारा समाज मोह से ग्रस्त रहेगा तब तक वह जो सेवा करेगा, उस सेवा में कुसेवा मिली ही रहेगी । श्रीभरत का अभिप्राय यह है कि इस मोह के विनाश हेतु हमें ईश्वर के सम्मुख होना आवश्यक है ।
Friday, 28 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
श्रीभरत अयोध्या के समस्त नर-नारियों को लेकर चित्रकूट क्यों जाते हैं ? यही चिकित्सा है । श्रीभरत कहते हैं, पहले चित्रकूट चलिए । अयोध्या के समस्त नर-नारियों को, सभी सम्प्रदाय के लोगों को निमन्त्रण देते हैं । भरतजी सब लोगों को लेकर चित्रकूट जाते हैं तो कुछ लोगों को वे हाथी पर बिठा देते हैं, कुछ लोगों को घोड़े पर, कुछ को रथ पर, कुछ को पालकी पर और कुछ लोग पैदल ही चलते हैं । संक्षेप में इसका अभिप्राय यह है कि हर व्यक्ति एक समान योग्यता और संस्कार का नहीं होता । चलना तो सबको ईश्वर की ओर है । पहुँचना तो सबको चित्रकूट है । जब तक चित्रकूट नहीं पहुँचेंगे, तब तक रोग दूर नहीं होगा । चित्त के संस्कार से ही रोग उद्भूत होता है । चित्रकूट जाने का अर्थ यह है कि अहंकार का त्याग करके मन और बुद्धि को साथ लिये चित्त के राज्य में प्रवेश करें और भगवान का साक्षात्कार करें ।
Thursday, 27 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
सेवा सबसे उत्तम वस्तु है, लेकिन मान लीजिए कोई संक्रामक रोग से ग्रस्त है और भाषण में सेवा की महिमा सुनकर उसके मन में उत्साह उमड़ पड़े कि वह तो लोगों की सेवा करेंगे, तो इसका परिणाम क्या होगा ? उससे पूछा गया कि क्या सेवा करोगे ? बोले, हम प्यासों को जल पिलाएँगे । जल पिलाना, तृप्ति देना एक बहुत बड़ी सेवा है, पर जब तपेदिक का रोगी कोई व्यक्ति प्यासों को जल पिलाएगा तो प्यासे लोग पानी तो वहाँ पी लेंगे, परन्तु यह क्या सच्चे अर्थों में सेवा है ? आपात दृष्टि से तो लगेगा कि जल पिलाने से प्यासे व्यक्ति की प्यास मिट गई, पर जब वह जल पिलाएगा, तो जल के साथ-साथ वह अपना रोगाणु भी तो पिलाएगा । और तब इसका परिणाम क्या होगा ? कुछ दिनों बाद बेचारे जिन लोगों ने उसके हाथ से जल पिया है, वे रोगी हो जाएँगे । यह कर्म तो सेवा के समान दिखाई देते हुए भी सेवा नहीं कुछ और है । अनर्थकारी है । भरतजी का अभिप्राय यह है कि जो स्वयं रोगी है, सच्चे अर्थों में दूसरों की सेवा नहीं कर सकता । वे समाज से यही पूछते हैं - आप किससे सुख पाना चाहते हैं मुझसे ? फिर विनम्रतापूर्वक कहा - आप लोग भी अस्वस्थ हैं और मैं भी । श्रीभरत ने नाड़ी पकड़ कर रोग का निदान कर लिया और देखा कि सब रोगी हो रहे हैं । यहाँ तक कि गुरु वसिष्ठ, जो स्वयं वैद्य हैं, रोगी हो रहे हैं । वैद्य भी कभी-कभी रोगी हो जाया करते हैं । श्रीभरत कहते हैं कि अगर आप लोगों को तथा गुरुदेव वसिष्ठजी को मेरा राज्य स्वीकार कर लेना ही उचित प्रतीत हो रहा हो तो मैं यही समझता हूँ आप सभी मोहग्रस्त हैं । और तब उन्होंने उनकी चिकित्सा की । वे पूरे समाज को लेकर चित्रकूट जाते हैं ।
Wednesday, 26 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
श्रीभरतजी चित्रकूट की यात्रा में कैकेयी को भी साथ लेकर चलते हैं । कैकेयी को साथ ले जाने का क्या तात्पर्य है ? सारी समस्याओं की सृष्टि तथा राम को जीवन से दूर करने की चेष्टा जिन्होंने की, रामाज्ञा में गोस्वामीजी ने उन्हें कलि का प्रतीक बताया, 'कलहरूप कलि कैकेयी' । और इसका अभिप्राय यह है कि कैकेयीजी तब भले ही त्रेतायुग में निवास कर रही हो, पर उस समय वे कलि के समस्त लक्षणों से आक्रांत थीं । और तब श्रीभरत क्या करते हैं ? वे सारे समाज को लेकर चित्रकूट जाते हैं और साथ ही साथ कैकेयी को भी ले जाते हैं । इसके पीछे श्रीभरत का उद्देश्य क्या है ? गुरु वशिष्ठ ने उनसे कहा कि तुम प्रजा की, समाज की सेवा करो । पर उन्होंने गुरु वसिष्ठ के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया । बात बड़ी मनोवैज्ञानिक और बुद्धिगम्य है । वर्तमान युग के सन्दर्भ में हम अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में अनुभव करके देख सकते हैं । आज क्या समाज-सेवकों की कमी है ? क्या समाज की समस्याओं का समाधान करने वालों का अभाव है ? एक कवि ने एक कविता सुनाई, जिसका भावार्थ यह था, " अब बाग में इतने माली हो गये हैं कि फूलों के लिए जगह ही नहीं बची है ।" माली ही माली दिखाई दे रहे हैं, फूल कहीं दिखाई नहीं देते । इतने सेवक होते हुए भी, सेवकों की संख्या निरन्तर बढ़ते जाने पर भी समस्या क्यों बनी हुई है ? श्रीभरत ने इसी ओर ध्यान आकृष्ट किया । गुरु वसिष्ठ कहते हैं कि सबकी सेवा करो । पर श्रीभरत का तात्पर्य यह है कि सेवा करने वाले की भी कुछ योग्यता और कसौटी होना चाहिए ।
Tuesday, 25 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
सभी युगवालों के लिए श्रीभरत जी में प्रेरणा है ; सतयुग वालों के लिए प्रेरणा इसलिए है कि भरत महान योगी हैं, साधक हैं, त्रेतायुग वालों के लिए इसलिए है कि उनके चरित्र में लोकोपकार और सेवा रूपी सर्वश्रेष्ठ यज्ञ भावना है ; द्वापर के लोगों के लिए वे इसलिए प्रेरक हैं कि उनके जैसा पूजा करने वाला भी कोई नहीं है - ह्रदय में असीम प्रेम के लिए वे नित्यप्रति प्रभु की पादुकाओं का पूजन करते हैं । लेकिन गोस्वामीजी कहते हैं कि सबसे अधिक प्रेरक तो श्रीभरत कलियुग के लिए हैं, क्योंकि हमारे युग की समस्याओं का जो समाधान श्रीभरत ने दिया है वह अन्य किसी ने नहीं दिया । वे सावधान कर देते हैं कि आप लोग इसे पुराने युग की गाथा के रूप में न लीजिएगा । 'कलिकाल' का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं - इस कठिन कलियुग में मुझ जैसे दुष्ट को भगवान राम के सम्मुख श्रीभरत ही ले गए । किसी ने पूछ दिया - तो श्रीभरत आपको कैसे ले गए ? उन्होंने कहा - और सब लोगों को देखकर तो मुझे साहस नहीं हुआ कि मैं भी श्रीराम के सामने जाऊँ । जिनमें ज्ञान-भक्ति की उत्कृष्टता थी, उनके साथ जाने में डर लगा, क्योकिं उनके साथ जाने योग्य कोई भी लक्षण मुझमें नहीं है । श्रीभरतजी के साथ जाने वालों में मैंने जब गुरु वसिष्ठ को देखा, बड़े-बड़े ऋषियों को देखा, योग्य मन्त्री और सेनापतियों को देखा, सत्कर्म करने वालों को देखा, तो मुझे साहस नहीं हुआ । लेकिन जब देखा कि वे मन्थरा और कैकेयी को भी साथ लेकर चल रहे हैं तो सोचा कि मैं भी चल सकता हूँ ।
Monday, 24 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
जब सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग कहते हैं तब इसका एक अर्थ तो यह होता है कि इतने वर्ष तक सतयुग, इतने वर्ष तक त्रेता, इतने वर्ष तक द्वापर और इतने वर्ष तक कलियुग रहेगा । पर ये चारों युग सतयुग में भी होते हैं, और त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में भी होते हैं । और केवल चारों युगों में ही नहीं बल्कि हमारे आपके जीवन में भी नित्य चारों युग आते हैं । जिस समय हम जिस युग की मनःस्थिति में रहते हैं, उस समय हमारे जीवन में वही युग रहता है । एक ही स्थान पर बैठे हुए अलग-अलग लोगों को अलग-अलग युग की अनुभूति होती है । जो कथा में बैठे हुए हैं, वे किस युग में बैठे हुए हैं ? जिनकी दृष्टि किसी दूसरे के जूते पर लगी हुई है वे कलियुग में ही तो बैठे हुए होंगे । तात्पर्य यह है कि शरीर चाहे जहाँ हो, व्यक्ति का मन जिस युग की मनोभूमि पर होगा वह उसी युग में विद्यमान होगा । तो राम जब अयोध्या से निकाल दिए गये वह क्या त्रेतायुग था ? मन्थरा के द्वारा कैकेयी के अन्तःकरण में जो विकृति उत्पन्न की गई, वह क्या त्रेतायुग का लक्षण है ? वस्तुतः वह त्रेता में कलियुग आ गया था । कलियुग का जैसा लक्षण है वह सारा का सारा वातावरण वहाँ बन गया था । गोस्वामीजी कहते हैं कि श्रीभरत तो कलियुग वालों के लिए हैं । उन्होंने कलियुग की समस्याओं का जो समाधान दिया है वह अन्य किसी ने नहीं दिया ।
Sunday, 23 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
गोस्वामीजी ने युगधर्म का वर्णन करते हुए कहा है कि जब हमारे अन्तःकरण में ध्यान-समाधि की इच्छा जाग्रत हो, अन्तर्मुखता उत्पन्न हो, तो उस समय समझ लेना चाहिए कि हम मन से सतयुग में निवास कर रहे हैं । जिस समय हमारे अन्तःकरण में लोकसेवा, परोपकार तथा यज्ञ की वृत्ति आवे तो समझ लेना चाहिए कि हम त्रेतायुग में हैं । और जिस समय हमारे अन्तःकरण में पूजा और भगवान की अराधना की वृत्ति उदित हो तो समझ लेना चाहिए कि हम मानसिक रूप से द्वापर युग में निवास कर रहे हैं । पर जब मन में दूसरों को कष्ट देने की वृत्ति आए तब ? जब दूसरों को संकट में देखकर हमें प्रसन्नता हो, जब हमारे अन्तःकरण में काम, क्रोध आदि की वृत्तियाँ आएँ तो उस समय समझ लेना चाहिए कि कलियुग में बैठे हुए हैं । फिर इस क्रम में विपर्यय भी होता है । जैसे ऋतुओं के क्रम में आप देखते हैं, शीत ऋतु में ठण्डक की प्रधानता है, ग्रीष्म में गर्मी की और वर्षा ऋतु में वर्षा की । लेकिन इसमें कभी-कभी विपर्यय भी होता है । कभी-कभी शीतऋतु में भी ठण्डक का अनुभव नहीं होता, गर्मी की अनुभूति होती है । उस समय ऋतु का नाम भले ही शीतऋतु हो पर अनुभूति दूसरे ऋतु की होती है । इसी प्रकार ग्रीष्मऋतु में गर्मी पड़ रही है, अचानक वर्षा हो गयी तो ठण्डक आ जाती है । और तब नाम उसका भले ही ग्रीष्मऋतु हो पर उस समय हम शीतलता का अनुभव करते हैं, वर्षा का अनुभव करते हैं, ग्रीष्म का अनुभव नहीं होता है । तो जैसे ऋतुओं के क्रम में विपर्यय होता है, उसी तरह युगों में भी विपर्यय होता है ।
Saturday, 22 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
श्रीभरत त्रेतायुग में आए और उस युग के लोगों ने उनके प्रेम को देखा, उनकी जीवन की साधना और तपस्या को देखा । सुनने वाला अचानक गोस्वामीजी से पूछ बैठता है कि महाराज, ये बातें तो त्रेतायुग वालों के लिए थीं । उस युग में जो समस्याएँ थीं - जो दुख, दरिद्रता और दीनता थी, उनका उन्होंने समाधान दिया, परन्तु आज तो आप केवल उनकी कथा सुना रहे हैं, केवल अतीत का इतिहास सुना रहे हैं । तब अन्तिम पंक्ति में गोस्वामीजी मानो संकेत कर देना चाहते हैं - नहीं, नहीं मैं पुरातन युग की ही बात नहीं कह रहा हूँ, वह तो बिल्कुल वर्तमान से जुड़ा हुआ इसी युग का सत्य है । गोस्वामीजी अपना दृष्टांत देते हुए कहते हैं - मैं तो इस युग का व्यक्ति हूँ । मैं अस्वस्थ था । गोस्वामीजी के जीवन में कितनी तीव्र कामुकता थी, उसका कितना तीव्र आवेग था, इससे आप लोग परिचित हैं । पर अन्त में वे इस रोग से मुक्त हुए, स्वस्थ हुए । किस उपाय से ? आज के युग में इन मानस रोगों से पीड़ित व्यक्ति और समाज को स्वस्थ रहने का उपाय बता देते हैं । आने वाले दिनों में इस उपाय पर चर्चा करेंगे ।
Friday, 21 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
भगवान श्रीराम के वन गमन के बाद गुरु वसिष्ठ श्रीभरत से जब यह कहते हैं कि तुम अयोध्या का राज्य-संचालन करो, प्रजा की सेवा करो, माताओं की सेवा करो, समाज की सेवा करो, तो उनका यह प्रस्ताव बड़ा युक्तियुक्त प्रतीत होता है । और इतना ही नहीं, कभी तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि अन्त में श्रीभरत को यही करना भी पड़ा । उन्होंने चौदह वर्ष तक राज्य चलाया । अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि ऐसी स्थिति में अयोध्या के सारे समाज को, इतने बड़े जनसमूह को लेकर चित्रकूट जाने की क्या आवश्यकता थी ? गुरु वसिष्ठ की आज्ञा मानकर वे प्रजा की सेवा करते और चौदह वर्ष पश्चात श्रीराम के लौट आने पर राज्य उन्हें सौंप देते । लेकिन यहीं पर रामचरितमानस का जीवन-दर्शन निहित है । और यह जीवन-दर्शन विशेष रूप से इसी युग के संदर्भ में प्रासंगिक है। गोस्वामीजी तो एक बहुत बड़ी बात कहते हैं । अयोध्याकाण्ड के अन्त में उन्होंने कहा कि अगर श्रीभरत का जन्म न हुआ होता, तो संसार को कुछ बातों से वंचित रहना पड़ता । उनमें से एक-एक को गिनाते हुए वे कहते हैं - श्रीभरत का जन्म न हुआ होता तो श्रीराम के प्रेम की परिपूर्णता समाज के सामने न आ पाती । बड़े-बड़े तपस्वियों और मुनियों के लिए भी जो साधना कठिन है, उसे अपने जीवन में साकार करके कौन दिखाता । और अगली पंक्ति में वे और भी महत्व की बात कहते हैं कि समाज में जो दुख, पीड़ा, जलन और दरिद्रता है, उसे दूर करने में श्रीभरत को छोड़कर दूसरा कौन समर्थ है ।
Thursday, 20 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
हम कितने भी समृद्ध क्यों न हों, हमारा परिवार कितना भी बड़ा क्यों न हो, पर जब हम बीमार हो जाते हैं तो सब व्यर्थ प्रतीत होता है, दुखद प्रतीत होता है । ठीक इसी प्रकार जब व्यक्ति और समाज का मन अस्वस्थ हो जाता है तब न तो व्यक्ति सुखी रह पाता है और न समाज । मन का रोगी न तो स्वयं सुख, चैन और शान्ति से रह सकता है और न दूसरों को रहने देता है । आज समाज के चारों ओर जो अव्यवस्था और अशान्ति दिखाई दे रही है, यदि हम गहराई में उसके मूल में पैठकर देखें, तो यही कह सकते हैं कि समाज में मन के रोग इतने अधिक बढ़ गये हैं कि इसके परिणामस्वरूप समाज में चारों ओर विग्रह और अशान्ति दिखाई पड़ रही है । मन के इन रोगों को दूर करने के लिए मन की चिकित्सा करने की आवश्यकता है । भौतिक शरीर की सुरक्षा और स्वस्थता के लिए जैसे चिकित्सा की आवश्यकता है ; शासन की ओर से इसका प्रबन्ध है ; महापुरुषों, आश्रमों और सेवा-प्रतिष्ठानों द्वारा भी उस दिशा में प्रयास होते हैं । परन्तु शरीर की अपेक्षा मन की स्वस्थता अधिक आवश्यक है, उसके लिए भी चिकित्सालय की आवश्यकता है । लेकिन इस चिकित्सालय की व्यवस्था शासनतन्त्र की ओर से सम्भव नहीं है ; बल्कि यह तो संतों के द्वारा ही संभव है । इसका संकेत हमें मानस के अयोध्याकाण्ड में श्रीभरत के चरित्र के माध्यम से मिलता है ।
Wednesday, 19 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
रामचरितमानस में रामकथा के अन्त में मानस रोगों का वर्णन कुछ विचित्र-सा लगता है । इसलिए कि रामकथा में मधुरता है और रोग का दृश्य तो कोई आकर्षक नहीं होता । जब आप किसी चिकित्सालय में जाकर रोगियों को देखते हैं, तो स्वाभाविक रूप से ही वहाँ का वातावरण आपके लिए कोई उत्साहजनक नहीं होता । पर इतना होते हुए भी अस्वस्थ होने पर चिकित्सालय जाना व्यक्ति की बाध्यता है । व्यक्ति अगर अस्वस्थ हो जाय तो स्वस्थता के लिए रोग-निदान और चिकित्सा की आवश्यकता होती है । ऐसी स्थिति में चिकित्सालय प्रिय भले ही न लगे, पर वह कल्याणकारी तो है ही । रामकथा के समान मधुरता मानस-रोग के प्रसंग में नहीं है, क्योकिं इसमें मन की अवस्थाओं का, सूक्ष्म वासनाओं का ही वर्णन है । यह इतना आवश्यक है कि गोस्वामीजी ने निःसंकोच भाव से रामकथा के बाद मनुष्य के मन के रोगों का वर्णन किया है, और तत्पश्चात उसकी चिकित्सा का वर्णन करके रामकथा का समापन किया है । और यही हमारे आपके जीवन का सत्य है ।
Tuesday, 18 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
गान्धारी की यह ममता कि दुर्योधन मेरा बेटा है, मैं उसे नहीं मरने दूँगी और दुर्योधन ? क्या वह कपड़े उतारकर गया ? उसे तो दूसरों का कपड़ा उतारना ही आता है, अपना कपड़ा उतारना उसे नहीं आता । कपड़े उतारकर चला तो बीच में नारदजी मिल गए । नारदजी ने पूछा - अरे-अरे, यह क्या, कहाँ जा रहे हो ? लज्जा के मारे बिचारा दुर्योधन बैठ गया । तब नारदजी ने कहा कि मेरे सामने जब तुम्हें इस प्रकार से लज्जा आ रही है तो गान्धारी के सामने कैसा लगेगा ? इसलिए ऐसा करो, कमर में एक छोटा-सा कपड़ा लपेट लो । दुर्योधन को नारदजी की सलाह अच्छी लगी । कमर में वस्त्र लपेट कर वह गान्धारी के सामने पहुँच गया ! पतिव्रता गान्धारी ने अपनी आँखों की पट्टी हटाई, उसकी दृष्टि दुर्योधन पर पड़ी और उसका सारा शरीर व्रज का हो गया, केवल कमर कच्ची रह गयी क्योकिं कमर पर पट्टी पड़ी थी । बड़ा विचित्र व्यंग्य है । इससे बढ़कर विडम्बना क्या हो सकती है । पतिव्रता की दृष्टि ने सारे शरीर को तो व्रज का बना दिया, पर एक कपड़े की पट्टी को भेद वह दृष्टि उसके कमर को व्रज नहीं बना पाई । क्यों ? वह दुर्योधन की कमर पर मात्र कपड़ा नहीं था । वह तो ईश्वर का संकल्प था । जो नारद ने कहा था, वह कपड़े के रूप में भगवान का ही संकल्प था । जब भगवान सुने तो हँसकर उन्होंने यही कहा कि देखो, गान्धारी ममता में कितनी अन्धी हो रही है । वह समझ रही थी कि मैं अपने पुत्र को अमर बनाने जा रही हूँ । अमर तो नहीं बना पाई, बल्कि उन्होंने तो मारने का उपाय बता दिया । पहले तो सोचना पड़ता कि दुर्योधन को कहाँ से मारा जाए, पर अब सबको पता चल गया कि वह मरेगा तो कमर पर से ही मरेगा । उसकी कमर ही कमजोर है । कैसा दुर्भाग्य है उसका !
इसका अभिप्राय यह है कि इतिहास में बड़े-से-बड़े ऐसे भी पात्र हैं, जिनके जीवन में यशस्विता होते हुए भी ममतायुक्त पक्षपात आया, जहाँ ममता का अन्धत्व आया और वहाँ उन पर कलंक भी अवश्य लगा । सच्चे अर्थों में ममता हमारे जीवन को अन्धकार में डाल देती है, भ्रम में डाल देती है । और हमारे जीवन में जब तक स्नेह ममता की आर्द्रता बनी रहेगी, तब तक यह पक्षपात हमारे लिए और समाज के लिए संकट उत्पन्न करती रहेगी ।
इसका अभिप्राय यह है कि इतिहास में बड़े-से-बड़े ऐसे भी पात्र हैं, जिनके जीवन में यशस्विता होते हुए भी ममतायुक्त पक्षपात आया, जहाँ ममता का अन्धत्व आया और वहाँ उन पर कलंक भी अवश्य लगा । सच्चे अर्थों में ममता हमारे जीवन को अन्धकार में डाल देती है, भ्रम में डाल देती है । और हमारे जीवन में जब तक स्नेह ममता की आर्द्रता बनी रहेगी, तब तक यह पक्षपात हमारे लिए और समाज के लिए संकट उत्पन्न करती रहेगी ।
Monday, 17 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
महाभारत की गान्धारी भी कैकेयीजी के समान ही परम पतिव्रता थीं । उनका विवाह अन्धे धृतराष्ट्र के साथ हुआ, लेकिन जब उन्होंने देखा कि मेरे पति के पास दृष्टि नहीं है तो उन्होंने भी अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली । नेत्र से बढ़कर और कौन-सी वस्तु होगी ? दृष्टि होते हुए भी उन्होंने देखना बन्द कर दिया । सारे संसार में उनकी कीर्ति फैल गई । उनके पातिव्रत की महिमा फैल गई, लेकिन ममता ने किसके यश को धूमिल नहीं किया ? जब गान्धारी ने दुर्योधन को बुलाया और कहा - पुत्र ! मैंने निर्णय किया है कि कुछ समय के लिए मैं अपनी आँखों की पट्टी खोलूँगी । दुर्योधन ने पूछा - क्यों, क्या उद्देश्य है आपका ? गान्धारी ने कहा - मैं पतिव्रता हूँ । आज तक अपनी दृष्टि से संसार को नहीं देखा । ज्योंही पट्टी खोलकर मैं तुम्हें देखूँगी, तुम्हारा शरीर व्रज का हो जाएगा और तब भीम तुम्हें नहीं मार सकेगा । तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी । फिर देखें, पाण्डव तुम्हें कैसे जीत पाते हैं ? दुर्योधन तो सुनकर फूला नहीं समाया, प्रसन्न हो गया । यह समाचार जब गुप्तचरों के द्वारा पाण्डवों के पास पहुँचा, तो वे निराश हो गए । वे पातिव्रत की शक्ति से परिचित थे । सोचने लगे कि अब तो लड़ाई से हार अवश्यंभावी है । भीम भी निराश हो गये और अर्जुन भी । युधिष्ठिर भी घबरा गए । एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे, जो सुनकर मुस्कुराने लगे । श्रीकृष्ण को मुस्कुराते देखकर पाण्डव बोले - महाराज ! हम लोग तो इतने घबराए हुए हैं और आप मुस्कुरा रहे हैं ? क्या आपने नहीं सुना कि गान्धारी जैसी पतिव्रता अपनी आँखों की पट्टी हटा रही है । श्रीकृष्ण बोले - पट्टी हटा नहीं रही है, चढ़ा रही है । अभी तक पट्टी केवल कपड़े की थी और अब उन्होंने ममता की पट्टी चढ़ाने का निर्णय लिया है । यह कपड़े की पट्टी तो हट जाएगी पर इस ममता की पट्टी से वह पूरी तरह अन्धी हो जाएँगी । इसलिए तुम लोग निश्चिंत रहो । वस्तुतः न देखने की स्थिति में तो वह अब आई है ।
Sunday, 16 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच ........
लंका से लौटकर भगवान श्रीराम ने कैकेयीजी से पूछा - माँ ! जाते समय मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हारा बेटा मैं हूँ, अब तुम्हें विश्वास हुआ कि नहीं ? गोस्वामीजी लिखते हैं - कैकेयीजी प्रसन्न हो गयीं । उनके मन में कोई दुख नहीं रह गया । कई लोग यह कहते हैं कि कैकेयीजी ने भगवान राम से कहा कि भरत से मुझे माँ कहला दो । जो लोग ऐसा कहते हैं वे कैकेयीजी के चरित्र का अनादर करते हैं, वे तो भगवान श्रीराम की भक्ति का भी अनादर करते हैं । जो यह कहते हैं कि कैकेयीजी ने श्रीराम से हठ किया - भरत एक बार मुझे माँ कहकर पुकार दे और साथ-साथ यह भी कह दिया जाता है कि श्रीराम ने भरतजी से कह दिया कि तुम कैकेयीजी को माँ कहकर पुकारो और भरतजी ने कह दिया कि मैं नहीं पुकारुँगा । न तो यह बात भरतजी की मर्यादा के अनुरूप है और न श्रीराम के ही अनुरुप है । बल्कि भगवान राम ने तो भरतजी से कह दिया कि भरत यह बहुत अच्छा हुआ । क्या ? सभी भाइयों में आपस में बँटवारा होता है । इस बँटवारे में एक बहुत बड़ा लाभ यह हुआ कि अभी तक कैकेयीजी के बेटे हम दोनों थे, लेकिन अब उनका नाता तुमसे टूट गया और उन पर पूरा अधिकार केवल मेरा है । अब वे केवल मेरी माँ हैं । मेरे और माँ के बीच अब तुम तीसरे तो नहीं बनोगे ? श्रीभरत ने कहा - नहीं प्रभो ! हम तो यही चाहते हैं कि उनके अन्तःकरण में इसी सत्य का साक्षात्कार होता रहे कि उनके पुत्र तो एकमात्र श्रीराम को छोड़कर अन्य कोई नहीं है और सचमुच यही ममत्वशून्य स्थिति है । उस ममता के द्वारा कैकेयीजी को कलंक लगा और उनकी ममता को मिटाने के लिए ही श्रीभरत ने उनसे इतना शुष्क व्यवहार किया, उनके कलंक का प्रक्षालन किया और अन्त में जब उनके जीवन से ममता मिट गई, तभी उनका कल्याण हुआ ।
Saturday, 15 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .........
भरतजी जब ननिहाल से लौटकर आए और अयोध्या का समाचार सुना तो समझ गए कि कैकेयीजी को ममता का दाद रोग हो गया है । उन्होंने तुरन्त चिकित्सा प्रारंभ की । बड़े कठोर शब्दों में जोर से फटकारा । बड़ी तीव्र भर्त्सना की ओर उनके इस शुष्क और कठोर व्यवहार का बड़ा सुन्दर परिणाम हुआ । कैकेयीजी ने जब भरत की फटकार सुनी तो भरत तो आँखों से ओझल हो गए और मन की आँखों के सामने राम आ गए । याद आने लगा कि वन जाते समय राम ने क्या कहा था । जिसको मैंने वनवास दिया, उसने मुझे क्या कहा और जिसको राज्य देने के लिए मैंने इतना अनर्थ किया, कुयश लिया, कलंक लिया, विधवा बनी, वह क्या कह रहा है ? राम ने तो मुझे जननी कहकर पुकारा था, कहीं राम का सम्बोधन ही तो ठीक नहीं था ? सचमुच भरत मेरा बेटा नहीं है । सचमुच मैंने पुत्र को पहचानने में भूल की । अब तो सचमुच संसार में मेरा कोई भी अपना नहीं है । पति से परित्यक्ता, समाज से तिरस्कृता, पुत्र के द्वारा सम्बन्ध की अस्वीकृति । सब जगह से उनके नाते टूटे हुए हैं । एक आशा की डोर बँधी हुई थी भरत से ; लेकिन भरतजी ने उसे भी बलपूर्वक तोड़ दिया । नाता तोड़ने देने के बाद भी भरतजी बड़े सावधान थे । उन्होंने जीवन भर कैकेयी को फिर कभी माँ कहकर नहीं पुकारा ? वैद्य मानते हैं कि पथ्य-कुपथ्य सबके अलग-अलग होते हैं । भरतजी ने देखा कि एक बार तो इस ममता के संस्कार ने इतना अनर्थ किया, अब फिर से मैं यदि माँ कहकर पुकारुँगा तो कुपथ्य पाकर रोग फिर से जाग उठेगा । इस रोग का क्या ठिकाना, थोड़ी-सी नमी पाकर फिर उभर सकता है और यदि यह ममता फिर से उभर गई, तो माँ का कल्याण नहीं है । इसलिए निर्णय कर लिया कि माँ के जीवन से ममता को पूरी तरह मिटा देना होगा ।
Friday, 14 October 2016
युग तुलसी श्री रामकिंकर उवाच .......
श्रीभरत यह समझ गए कि कैकेयी के अन्तःकरण में ममता का संस्कार नहीं मिट पा रहा है और जब तक उनका यह ममत्व दूर नहीं होगा, तब तक उनका कल्याण नहीं हो सकता । इसलिए उन्होंने यह निर्णय लिया कि इनके ममत्व को दूर करना ही होगा और उनके इस ममता-दाद की चिकित्सा उन्होंने अपने शुष्क व्यवहार से ही प्रारंभ की । कैकेयीजी के प्रति उनके शुष्क व्यवहार का अभिप्राय यही था कि व्यवहार में आर्द्रता कैकेयीजी के लिए कुपथ्य है । उनमें अहंता की समस्या नहीं है । ये सिंहासन अपने लिए नहीं माँगती । वे चाहती हैं कि मेरा बेटा राजा बने । भरत मेरा बेटा है, भरत सिंहासन पर बैठे । यह ममता ही उनकी समस्या है ।
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